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________________ जैनधर्म गोजन करनेसे आधा घंटा पहलेसे लेकर भोजन करनेके आधा घटा बाद तक मनमें अगान्ति उत्पन्न करनेवाला कोई विचार नही आना वाहिये । ऐसी दशामे जो भोजन किया जाता है, उसका परिपाक अच्छा होता है और वह विकार नहीं करता। किन्तु इसके विपरीत काम, क्रोध आदि विकारोके रहते हुए यदि भोजन किया जाता है तो वह भोजन शरीरमें जाकर विकार उत्पन्न करता है। इससे स्पष्ट है कि कर्ताक भावोका असर अचेतनपर भी पड़ता है और उसके अनुसार ही उसका विपाक होता है। अत जीवको फल भोगनमें परतन्त्र माननेकी आवश्यकता नहीं है। यदि ईश्वरको फलदाता माना जाता है तो जहाँ एक मनुष्य दूसरे मनुष्यका घात करता है वहाँ घातकको पापका भागी नही होना वाहिये ; क्योकि उस घातकके द्वारा ईश्वर मरनेवालेको दंड दिलाता है। जैसे, राजा जिन पुरुषोके द्वारा अपराधियोंको दण्ड दिलाता है वे पुरुष अपराधी नही कहे जाते, क्योकि वे राजाज्ञाका पालन करते है। उसी तरह किसीका घात करनेवाला घातक भी जिसका घात करता है उसके पूर्वकृत कर्मोका फल भुगताता है, क्योकि ईश्वरने उसके पूर्वकृत कर्मोकी यही सजा नियत की होगी तभी तो उसका वध किया गया। यदि कहा जाये कि मनुष्य कर्म करनेमे स्वतत्र है अत घातकका कार्य ईश्वरप्रेरित नहीं है, किन्तु घातककी स्वतत्र इच्छाका परिणाम है। तो इसका उत्तर यह है कि ससारदशामें कोई भी प्राणी वास्तवमें स्वतंत्र नहीं है, सभी अपने अपने कर्मोसे बंधे है और कर्मके अनुसार ही प्राणीकी वृद्धि होती है। शायद कहा जाये कि ऐसी दशाम तो कोई भी व्यक्ति मुक्तिलाभ नही कर सकता; क्योकि जीव कर्मसे बंधा है और कर्मके अनुसार जीवकी बुद्धि होती है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योकि कर्म अच्छे भी होते है और बुरे भी होते है। अत. अच्छे कर्मके अनुसार उत्पन्न हुई बुद्धि मनुष्यको सन्मार्गकी ओर ले जाती है और बुरे कर्मके अनुसार उत्पन्न हुई वृद्धि मनुष्यको कुमार्ग
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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