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________________ सिद्धान्त १२७ विकृत ध्यान करके अपने मनके विकारोंको इतना अधिक वढाया है और उन्हे उल्टे रास्तेकी ओर प्रवृत्त किया है कि स्वभावसुन्दर नग्नता उसे सहन नहीं होती। दोष नग्नताका नही पर अपने कृत्रिम जीवनका है। वीमार मनुष्यके समक्ष परिपक्व फल, पौष्टिक मेव और सात्विक आहार भी स्वतंत्रतापूर्वक रख नहीं सकते। यह दोष, उन खाद्य पदार्थोका नही पर मनुष्यके मानसिक रोगका है। नग्नता छिपानेमें नग्नताकी लज्जा नहीं, पर इसके मूलमें विकारी पुरुपके प्रति दयाभाव है, रक्षणवृत्ति है। पर जैसे वालकके सामने नराधम भी सौम्य और निर्मल बन जाता है वैसे ही पुण्यपुरुषोके सामने, वीतराग विभूतियों के समक्ष भी वे शान्त हो जाते है । जहाँ भव्यता है, दिव्यता है, वहाँ भी मनुप्य पराजित होकर विशुद्ध होता है । मूर्तिकार सोचते तो माघवीलताकी एक शाखा जघाके ऊपरसे ले जाकर कमरपर्यन्त ले जाते । इस प्रकार नग्नता छिपानी अशक्य नही थी। पर फिर तो उन्हें सारी फिलोसोफीकी हत्या करनी पड़ती। बालक आपके समक्ष नग्न खड़े रहते है। उस समय वे कात्यायनी व्रत करती हुई मूर्तियोंके समान अपने हाथो द्वारा अपनी नग्नता नही छिपात । उनकी लज्जाहीनता उनकी नग्नताको पवित्र करती है। उनके लिये दूसरा आवरण किस कामका है ?" ___"जब मैं (काका सा०) कारकलके पास गोमटेश्वरकी मूर्ति देखने' गया, उस समय हम स्त्री, पुरुष, वालक और वृद्ध अनेक थे। हममेंसे किसीको भी इस मूर्तिका दर्शन करते समय संकोच जैसा कुछ भी मालम् । नहीं हुआ। अस्वाभाविक प्रतीत होनेका प्रश्न ही नहीं था। मैने अनेक नग्न मूर्तियां देखी है और मन विकारी होनेके वदले उल्टा इन दर्शनोंद कारण ही निर्विकारी होनेका अनुभव करता है। मैंने ऐसी भी मूर्तियाँ तथा चित्र देखे है कि जो वस्त्राभूपणसे आच्छादित होनेपर भी केवल विकारप्रेरक और उन्मादक जैसी प्रतीत हुई है । केवल एक बोप, चारिक लंगोट पहननेवाले नग्न साधु अपने समक्ष वैराग्यका वातावरण उपस्थित करते है। इसके विपरीत तिरसे पर पर्यन्त वस्त्राभूषणोंमें
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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