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________________ । . १२२ जनधर्म भित ! तुम्हारी जय हो। भव्य जीवोको स्वानुभव' करानेमें कारण परमगान्त मुद्राके धारक ! तुम्हारी जय हो। हे देव ! भव्यजीवोके माग्योदयसे आपका दिव्य उपदेश होता है, जिसे सुनकर उनका भ्रम दूर हो जाता है । हे देव ! तुम्हारे गुणोंका चिन्तन करनेसे अपने परायेका भेद मालूम हो जाता है। अर्थात् तुम्हारे आत्मिक गुणोंका विचार करनेसे में यह जान जाता हूँ कि आत्मा और शरीरमें तथा शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले कुटुम्बी जन धन-सम्पत्ति आदिमे कितना अन्तर है; क्योंकि तुम्हारी आत्मामे जो गुण है वैसे ही गुण मेरी आत्मामें भी मौजूद हैं मगर मै उन्हे भूला हुआ हूँ। अत तुम्हारे गुणोंका चिन्तन करनेसे मुझे अपने गुणोंका भान हो जाता है और उससे में 'स्व' और 'पर' पहचानने लगता है, जिससे मै अनेक आपदाजोसेमुसीवतोसे बच जाता हूँ। हे देव ! तुम संसारके भूषण हो; क्योकि तुम सब दूषणों और संकल्प विकल्पोसे मुक्त हो। तुम शुद्ध चैतन्यस्वरूप परमपावन परमात्मा हो। तुमने शुभ और अशुभरूप विभाव परिणतिका अभाव कर दिया है। हे धीर ! तुम अठारह दोषोंसे रहित हो और अपने अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप स्वचतुष्टयमें विराजमान हो। मुनि गणपति वगैरह तुम्हारी सेवा करते है। तुम नौ केवल लब्धिरूपी आध्यात्मिक लक्ष्मीसे सुशोभित हो। तुम्हारे उपदेशोपर चलकर अगणित जीवोने मुक्तिलाभ किया है, करते हैं तथा सदा करेंगे। यह भवरूपी समुद्र दुखरूपी खारे पानीसे पूर्ण है, इसे पार करानेमें आपके सिवा और कोई समर्थ नहीं है। यह देखकर और 'मेरे दुखरूपी रोगको दूर करनेका इलाज तुम्हारे ही पास है' यह जानकर मैं तुम्हारी शरणर्मे आया हूँ और चिरकालसे मैने जो दुख उठाये है उन्हें बतलाता हूँ। मैं अपनको भूलकर चिरकालसे इस संसारमें भटक रहा हूँ, मैने विधिके खेल, पुण्य और पापको ही अपना समझा और अपनेको परका कर्ता मानकर तथा परमें इष्ट या अनिष्टकी कल्पना करके अज्ञानवश मै व्याकुल हुमा हूँ। जैसे मृग मारीचिकाको पानी समझ लेता है वैसे ही मन
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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