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________________ ६.११० जनधर्म तो वह मेरे मनमें पाप करनेका विचार ही क्यों आने देता। दूसरा विचारेगा कि यदि वह मुझसे इस प्रकारके पाप कराना न चाहता तो वह मुझे ऐसा वनाता ही क्यो? तीसरा कहेगा कि यदि वह पापोको न कराना चाहता तो पापोंको पैदा ही क्यों करता। चौथा सोचेगा कि अब तो यह पाप कर ले फिर उस सर्वशक्तिमानकी खुशामद करके उसे भेट चढाकर अपराध क्षमा करा लेगे। सारांश यह है कि ससारका प्रवन्धकर्ता माननेकी अवस्थामे तो लोगोंको पाप करनेके लिये सैकड़ो वहाने बनानेका अवसर मिलता है, परन्तु वस्तु स्वभावके अनुसार ही संसारका सव कार्य चलता हुआ माननेकी अवस्थामें इसके सिवाय कोई विचार ही नहीं उठ सकता कि जैसा करेगे वैसा ही हम उसका फल भी पावेगे। एसा माननेपर ही हम बुरे आचरणोंसे बच सकते है 'और अच्छे आचरणोकी ओर लग सकते है। अत. किसी प्रवन्धकर्ताको खुशामद करके या भेट चढ़ाकर उसको राजी कर लेनेके भरोसे न रहकर 'हमको स्वयं अपने आचरणोको सुधारनेकी ओर ही दृष्टि रखनी चाहिये और यही श्रद्धान रखना चाहिये कि यह विश्व अनादि-निधन है इसका कोई एक बुद्धिमान प्रबन्यकर्ता नही है। , ७ जनदृष्टि से ईश्वर 'ईश्वर' शब्दके सुनते ही हमे जिन अर्थोंकावोध होताहै वे है-ऐश्वर्यशाली,वैभवशाली, सर्वशक्तिमान,स्वामी, अधिकारी,कर्ता हर्तामआदि। इस लोकमें जो दर्जा एक स्वतंत्र सम्राटका है वही परलोकमे ईश्वर या परमेश्वरका माना जाता है। जैसे किसी राजवशमे जन्म लेनेवालोको सम्माट्पद अनायास प्राप्त हो जाता है, उसके लिये उन्हे कुछ भी प्रयल नहीं करना पड़ता, वैसे ही वह ईश्वर भी अनादिकालसे संसारक कारण क्लेश, कर्म, कर्मफल और वासनामोसे सर्वथा अछूता है, उनका 'विनाश कर देनेसे उसे ईश्वरत्वपद प्राप्त नही हुआ है, किन्तु सदास 'ही उनस वह सर्वथा रहित है। इसीलिये वह सबसे बड़ा है, सबका गुरु है, सबका ज्ञाता है। जो संसारी जीव क्लेश कर्म आदिको नष्ट
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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