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________________ ૪ जैनधर्म ही चलते है और स्वयं ही ठहरते है, धर्म और अधर्मं केवल उसमें सहायकमात्र है । ' ४. आकाशद्रव्य जो सभी द्रव्योको स्थान देता है उसे आकाशद्रव्य कहते है । यह द्रव्य अमूर्तिक और सर्वव्यापी है। इसे अन्य दार्शनिक भी मानते - है । किन्तु जैनोकी मान्यतामे उनसे कुछ अन्तर है । जैनदर्शन में आकाशके दो भेद माने गये है— एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश । सर्वव्यापी आकाशके मध्यमे लोकाकाश है और उसके चारो और सर्वव्यापी अलोकाकाश है । लोकाकाशमे छहो द्रव्य पाये जाते है और अलोकाकाशमें केवल आकाशद्रव्य ही पाया जाता है । जैसा कि लिखा है : 4 'जीवा पुस्गलकाया धम्माघम्मा य लोगदोणण्णा । तत्तो अणण्णमण्ण आयास अतवदिरित ॥ ६१ ॥ पचास्ति ० + 'जीव, पुद्गल, धर्म और अधर्मद्रव्य लोकसे बाहर नही है । और १ प्रो० घासीराम जैनने अपनी 'कासमोलाजी बोल्ड एण्ड न्यू नामकी पुस्तकमें धर्मद्रव्यकी तुलना आधुनिक विज्ञानके ईथर नामक तस्वसे और अधर्मं द्रव्यकी तुलना सर आइजक न्यूटनके आकर्षण सिद्धान्तसे की है । क्योकि वैज्ञानिकोने 'ईयर' को अमूर्तिक, व्यापक, निष्क्रिय और अदृश्य मानने के साथ 'गतिका आवश्यक माध्यम भी माना है, जैनोने धर्मद्रव्यको भी ऐसा ही माना है । अधर्मद्रव्य और विज्ञान के आकर्षण सिद्धान्तकी तुलना करते हुए प्रोफेसर जैनने लिखा हे — 'यह जैनधर्मके अधर्मद्रव्य विषयक सिद्धान्तकी सबसे बडी विजय है कि विश्वकी स्थिरताके लिये विज्ञानने अदृश्य आकर्षणशक्तिकी सत्ताको स्वयसिद्ध प्रमाणके रूपमें स्वीकार किया और प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइस्टोनने उसमें सुधार करके उसे क्रियात्मकरूप दिया । अब आकर्षण सिद्धान्तको सहायक कारणके रूपमें माना जाता है, मूल कर्ताके रूपमें नही, इसलिये अब वह जैनधर्मविषयक अधर्मद्रव्यको मान्यताके विल्कुल अनुरूप बैठता है ।' पे-४४ |
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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