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________________ दर्शन और ज्ञान जैन परम्परा के अनुसार शान के जो विभिन्न प्रकार हैं उन पर विचार करने के पहले उन दो स्तरों पर विचार करना जरूरी है जिनके द्वारा मान की प्राप्ति होती है। ज्ञान-प्राप्ति की पहली सीढ़ी है वर्शन । जैन दार्शनिक दर्शन तथा माल शब्दों का इस्तेमाल ज्ञानप्राप्ति के अनिर्णीत तथा निर्णीत स्तरों के लिए करते हैं। इन्द्रिय तथा वस्तु के सम्पर्क से ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया शुरू होती है और सर्वप्रथम चेतना उद्भूत होती है, और इस दौर में हमें सिर्फ वस्तु की उपस्थिति का आभास मिलता है । अतः सम्बन्धित वस्तु के बारे में केवल अस्पष्ट जानकारी ही मिलती है। उस वस्त के बारे में व्यापक जानकारी नहीं मिलती. इसलिए वह किस वर्ग की है. इसे जानने का कोई उपाय नहीं होता। जैन शब्दावली में इस प्रथम स्तर को वर्शन कहा गया है, और इस शान में सत्तामात्र निहित होती है। मानव-मस्तिष्क में विश्लेषण की जो प्रक्रिया अन्तनिहित रहती है वह इन्द्रिय-आभास को इन्द्रिय अनुमति में बदल देती है। इन्द्रियों को बस्तु के बारे में जो अस्पष्ट आभास मिलता है वह एक स्पष्ट वर्ग-विशेषता की अनुभूति में बदल जाता है । वस्तु की विशिष्टता समझ में आ जाती है और इससे ज्ञान के आगे के विस्तार के लिए मार्ग खुलता है। दर्शन और ज्ञान के इन दो स्तरों को क्रमशः हम 'परिचय ज्ञान' और 'विशिष्ट शान' के अर्थ में ले सकते हैं, क्योंकि पहले स्तर में मन के साथ वस्तु का केवल सम्पर्क स्थापित होता है, और दूसरे में उस वस्तु के वर्ग एवं स्वरूप के बारे में व्यापक जानकारी मिलती है । दर्शन से शान तक का मार्ग ज्ञानप्राप्ति के कच्चे तथा अस्पष्ट स्तर से लेकर उस स्तर तक का मार्ग है जिसमें ज्ञान केन्द्र का संश्लेषण करनेवाले विभिन्न तत्त्वों को स्पष्ट रूप से भाषा द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। इस भेद को सामान्यतः सभी जैन दार्शनिकों ने स्वीकार किया है, यद्यपि इस विभेद के एक या दूसरे रूप को अधिक महत्त्व देने से उसी एक मौलिक मान्यता को विभिन्न स्वरूप मिल गये हैं। विशिष्ट दार्शनिकों पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जायगी।
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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