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________________ जैन वर्तन शब्दों का प्रयोग किया, यद्यपि उनके अर्थ भिन्न रहे, और ( 6 ) दोनों ने अहिंसा के विचार तथा आचरण को हिन्दू धर्म से भी अधिक महत्त्व दिया । हैं कि जैन सम्प्र अपने विचारों की पुष्टि के लिए जब कोई विद्वान कुछ प्राचीन ग्रन्थों के अनुवादों के ही पन्ने पलटता है, तो वह गलत परिणाम पर पहुंचता है। यह बात केवल भारतीय चिन्तन पर ही लागू नहीं होती, इसलिए यहां इसके बारे में विशेष कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। यहां हमें यही देखना है कि किस प्रकार विद्वज्जगत् में भी जैन धर्म को बौद्ध धर्म की केवल एक शाखा समझा गया है। डब्ल्यू० एस० लिल्ली लिखते हैं: "बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि में जैन धर्म के रूप में जीवित है। यह एक सचाई है कि भारत से जब बौद्ध धर्म का लोप हो गया, तभी जैन धर्म लोकप्रिय हुआ ।"" एच० एच० विल्सन ने तो यहां तक कहा है कि जैन धर्म का जन्म ईसा की आठवीं या नौवीं सदी में ही हुआ है । वे लिखते हैं: "अत: सभी प्रमाणों से हम इस नतीजे पर पहुंचते दाय का अभ्युदय अर्वाचीन काल में हुआ है और इसे प्राधान्य एवं राज्याश्रय करीब आठवीं तथा नौवीं सदी में मिला है। उसके पहले भी संभवत: बौद्धों की एक शाखा के रूप में जैनों का अस्तित्व रहा है, और जिस धर्म के उत्थान में उन्होंने सहयोग दिया था उसी का दमन करके उन्होंने अपने को ऊपर उठाया है। इस मत के समर्थन में दक्षिण भारत के इतिहास में कई उदाहरण मिलते हैं : अक लंक नामक एक जैन मुनि ने कांची के बौद्धों को निरुतरित कर दिया, इसलिए उन्हें देश से निकाल दिया गया। कहा जाता है कि मदुरा का वर पाण्ड्य जब जैन बना तो उसने बौद्धों पर जुल्म किये, उन्हें शारीरिक यातनाएं दीं और देश से निकाल बाहर किया.. T... । अतः परिणाम यह निकलता है कि भारत से बौद्धों के पूर्ण लोप का संबंध जैनों के प्रभाव से है, जिसकी शुरुआत छठी या सातवीं सदी में हुई और जो बारहवीं सदी तक कायम रहा।" सर चार्ल् स ईलियट का मत है : "उनकी अनेक मान्यताएं, विशेषतः पुरोहितों एवं देवताओं में उनकी अनास्था, जो कि किसी भी धर्म के मामले में हमें एक विचित्र बात लगती है, बौद्ध धर्म से काफी साम्य रखती है, और एक प्रकार से जैन धर्म बौद्ध परम्परा की ही एक शाखा है । परन्तु यह कहना अधिक सही होगा कि यह उस व्यापक आंदोलन का एक काफी प्राचीन एवं विशिष्ट संगठन था जिसकी चरम परिणति बौद्ध धर्म में हुई है।" 2. सी० जे० शाह द्वारा उद्धत 'जेनिज्म इन जॉब इंडिया' (लंडन : लॉगर्मन ग्रीन एण्ड कं०, 1932), भूमिका, पु० xviii 3. 'वर्स ऑफ विल्सन' (लंडन : द्र बनेर एण्ड ०, 1861), खण्ड I, पृ० 334 4. 'हिन्दूइज्म एण्ड बुद्धिज्म' (लंडन : रुटलेज एण्ड केजन पॉस लि०, 1962), खण्ड - I, पु० 105
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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