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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व [50 उत्पत्ति, स्थिति और गति का श्रादि कारण है। वं कर्म के प्रभाव से ही विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं...” प्राणियों के उत्पत्ति-स्थान ८४ लाख हैं और उनके कुल एक करोड़ साढ़े सत्तानवें लाख (१,६७,५०,००० ) हैं । एक उत्पत्ति-स्थान में अनेक कुल होते हैं। जैसे गोबर एक ही योनि है और उसमें कृमि-कुल, कीट-कुल, वृश्चिक- कुल आदि अनेक कुल हैं। I स्थान १- पृथ्वीकाय २ - पकाय ३ -- तेजस्काय ४-- वायुकाय ५ - वनस्पतिकाय ६- द्वीन्द्रिय - श्रीन्द्रिय ८- चतुरिन्द्रय ६- तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय १० - मनुष्य ११-नार की १२ देव -- ७ लाख ୭ ७ ७ ४ उत्पत्ति २ ४ "" २४ लाख २ 35 99 " " "" لار 33 १४ लाख ४ 35 १२ लाख ७ २८ ७ ८ m 33 در २५ २६ 33 39 39 99 कुल " जलचर-- १२॥ लाख खेचर-१२ 39 स्थलचर १० उर परिसर्प - १०, भुज-परिसर्प १२ लाख ار "2 39 ,"
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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