SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्व [४७ स्थापित करना तेल में पानी मिलाने जैसा है। इसीलिए इस कठिनाई को दूर करने का सरीका इंढा जा रहा है। इससे इतना साफ हो जाता है कि चेतना या स्मृति से ही हमारी समस्या हल नहीं हो सकती। ___ सबीवतच्छरीर वादी वर्ग ने आत्मवादी पाश्चात्य दार्शनिकों की जिस कठिनाई को सामने रखकर सुख की श्वाँस ली है, उस कठिनाई को भारतीय दार्शनिकों ने पहले से ही साफ कर अपना पथ प्रशस्त कर लिया था। संसारदशा में प्रात्मा और शरीर-ये दोनों सर्वथा भिन्न नहीं होते। गौतम स्वामी के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने आत्मा और शरीर का भेदाभेद बतलाया है-अर्थात् "आत्मा शरीर से भिन्न भी है और अभिन्न भी। शरीर रूपी भी है और अरूपी भी तथा वह मचेतन भी है और अचेतन भी ५७" शरीर और आत्मा का क्षीर-नीवत् अथवा अमि-लोह-पिण्डवत् तादात्म्य होता है। यह प्रात्मा की संसारावस्था है। इसमें जीव और शरीर का कथंचित् अभेद होता है। अतएव जीव के दस परिणाम होते हैं ५१ तथा इसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि पौद्गलिक गुण मी मिलते हैं | शरीर से प्रात्मा का कथंचित्-मेद होता है । इसलिए उसको अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्थ कहा जाता है । आत्मा और शरीर का भेदाभेद स्वरूप जानने के पश्चात् “अमर चेतना का मरणधर्मा अचेतन से संबन्ध कैसे होता है !" यह प्रश्न कोई मूल्य नहीं रखता। विश्ववती चेतन या अचेतन सभी पदार्थ परिणामी नित्य हैं । ऐकान्तिक रूप से कोई भी पदार्थ मरण-धर्मा या अमर नहीं। प्रात्मा स्वयं नित्य भी है और अनित्य भी । सहेतुक भी है और निहतुक भी। कर्म के कारण आत्मा की भिन्न-भिन्न अवस्थाएं होती है, इसलिए वह अनिस्य और सहेतुक है तथा उसके स्वरूप का कभी प्रच्यव नहीं होता, इसलिए वह नित्य और निहतुक है। शरीरस्थ आत्मा ही भौतिक पदार्थों से सम्बद्ध होती है। स्वरूपस्थ होने के बाद वह विशुद्ध चेतनावान् और सर्वथा अमूर्त बनती है, फिर उसका कभी अचेतन पदार्थ से सम्बन्ध नहीं होता। बद्धआत्मा स्थूल शरीर-मुक होने पर भी सूक्ष्म-शरीर-युक्त सता है। स्थूल शरीर में वह प्रवेश नहीं करती किन्तु सूक्ष्म-शरीरवान् होने के कारण स्वयं उसका निर्माण करती है । अचेतन के साथ उसका अभूतपूर्व संबन्ध नहीं होता, किन्तु
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy