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________________ ३६४ ] जैन दर्शन के मौलिक तत्व किन्हीं का शरीर सुन्दर, जन्म-स्थान पवित्र व व्यक्तित्व श्राकर्षक होता हैं और किन्हीं का इसके विपरीत होता है । कई जीव लम्बा जीवन जीते हैं, कई छोटा, कई यश पाते हैं और कई नहीं पाते या कुयश पाते हैं, कई उच्च कहलाते हैं और कई नीच, कई सुख की अनुभूति करते हैं और कई दुःख की। ये सब पौद्गलिक उपकरण है। जीव पौगलिक है, इसलिए पौद्गलिकता की दृष्टि से सब जीव समान है। (ङ) निरुपाधिक स्वभाव की दृष्टि से : कई व्यक्ति हिंसा करते हैं— कई नहीं करते, कई झूठ बोलते हैं- कई नहीं बोलते, कई चोरी और संग्रह करते हैं— कई नहीं करते, कई वासना में फँसते हैं- कई नहीं फँसते । इस वैषम्य का कारण मोह ( मोहक - पुद्गलों ) का उदय व अनुदय है । मोह के उदय से व्यक्ति में विकार आता है। हिंसा, झूठ, चोरी, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह--ये विकार ( विभाव) हैं। मोह के अनुदय से व्यक्ति स्वभाव में रहता है - श्रहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह स्वभाव है । विकार औपाधिक होता है । निरुपाधिक स्वभाव की दृष्टि 1 1 से सब जीव समान हैं। (च) स्वभाव- बीज की समता की दृष्टि से : आत्मा परमात्मा है । पौद्गलिक उपाधियों से बन्धा हुआ जीव संसारी1 श्रात्मा है। उनसे मुक्त जीव परमात्मा है । परमात्मा के आठ लक्षण हैं :-- 1 ( १ ) अनन्त ज्ञान, (२) अनन्त-दर्शन, (३) अनन्त श्रानन्द, (४) अनन्त - पवित्रता, (५) अपुनरावर्तन, (६) अमूर्तता - अपौद्गलिकता, (७) गुरु लघुता -- पूर्ण साम्य, (८) अनन्त शक्ति | इन आठों के बीज प्राणीमात्र में सममात्र होते हैं। विकास का तारतम्य होता है। विकास की दृष्टि से भेद होते हुए भी स्वभाव - बीज की साम्य दृष्टि से सव जीव समान हैं । यह आत्मौपम्य या सर्व जीव-समता का सिद्धान्त ही निःशस्त्रीकरण की श्राधारशिला है। आत्मा का सम्मान श्रात्मा से श्रात्मा का सजातीय सम्बंन्ध है। मुद्गल उसका विजातीय
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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