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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व [ ३०३ चारित्रिक योग्यता एक रूप नहीं होती। उसमें असीम तारतम्य होता है। विस्तार - दृष्टि से चारित्र - विकास के अनन्त स्थान हैं। संक्षेप में उसके वर्गीकृत स्थान दो हैं - (१) देश (अपूर्ण)- चारित्र (२) सर्व ( पूर्ण ) चारित्र । पाँचवी भूमिका देश- चारित्र ( अपूर्ण विरति ) की है । यह गृहस्थ का साधनाक्षेत्र है । 1 जैनागम गृहस्थ के लिए बारह व्रतों का विधान करते हैं । श्रहिंसा, सत्य, चौर्य, स्वदार सन्तोष और इच्छा-परिमाण - ये पाँच अणुव्रत हैं। दिग् - विरति, भोगोपभोग विरति और अनर्थ दण्ड- विरति- ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास और अतिथि संविभाग- ये चार शिक्षावत हैं । बहुत लोग दूसरों के अधिकार या स्वत्व को छीनने के लिए, अपनी भोगसामग्री को समृद्ध करने के लिए एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाया करते हैं। इसके साथ शोषण या असंयम की कड़ी जुड़ी हुई है। असंयम को खुला रखकर चलने वाला स्वस्थ अणुव्रती नहीं हो सकता । दिग्बत में सार्वभौम ( आर्थिक राजनीतिक या और और सभी प्रकार के ) अनाक्रमण की भावना है। भोगउपभोग की खुलावट और प्रमाद जन्य भूलों से बचने के लिए सातवां और आठवां व्रत किया गया है। ये तीनों व्रत अवतों के पोषक है, इस लिए इन्हें गुण व्रत कहा गया । धर्म समतामय है । राग-द्वेप विपमता है । समता का अर्थ है -राग द्वेष का अभाव । विषमता है राग-द्वेष का भाव । सम भाव की आराधना के लिए सामायिक व्रत है । एक मुहूर्त्त तक सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करना सामायिक व्रत है 1 सम भाव की प्राप्ति का साधन जागरूकता है। जो व्यक्ति पल-पल जागरूक रहता है, वही सम भाव की ओर अग्रसर हो सकता है। पहले आठ व्रतों की सामान्य मर्यादा के अतिरिक्त थोड़े समय के लिए विशेष मर्यादा करना, हिंसा आदि की विशेष साधना करना देशावकाशिक व्रत है । पौषधोपवास- व्रत साधु-जीवन का पूर्वाभ्यास है । उपवासपूर्वक सावध प्रवृत्ति को त्याग समभाव की उपासना करना पौषधोपवास व्रत है ।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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