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________________ jܘܕܳ जैन दर्शन के मौलिक तत्व अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इनकी उपासना करने वाला महान् समझा जाने लगा। अक्रियावादियों ने कहा- "सुकृत और दुकृत का फल नहीं होता । शुभ कर्मों के शुभ और अशुभ कर्मों के अशुभ फल नहीं होते। अात्मा परलोक में जाकर उत्पन्न नहीं होता"--फलस्वरूप लोगों में सन्देह बढ़ा, भौतिक लालसा प्रबल हुई। महा इच्छा, महा प्रारम्भ और महा परिग्रह का राहु जगत् पर छा गया। क्रियावादी की अन्तर्दृष्टि--"कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि"-अपने किये कर्मों को भीगे बिना छुटकारा नहीं, इस पर लगी रहती है . ११ वह जानता है कि कर्म का फल भुगतना होगा। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में। किन्तु उसका फल चखे बिना मुक्ति नहीं । इसलिए यथासम्भव पाप-कर्म से बचा जाए-यही श्रेयस् है। अन्तर्दृष्टिवाला व्यक्ति मृत्यु के समय भी घबड़ाता नहीं, दिव्यानन्द के साथ मृत्यु को वरण करता है। अक्रियावादी का दृष्टि विन्दु-"हत्या गया इमे कामा" जैसी भावना पर टिका हुआ होता है । वह सोचता है कि इन भोग-साधनों का जितना अधिक उपभोग किया जाए, वही अच्छा है। मृत्यु के बाद कुछ होना जाना नहीं है । इस प्रकार उसका अन्तिम लक्ष्य भौतिक सुखोपभोग ही होता है । वह कर्मबन्ध से निरपेक्ष होकर त्रस और स्थावर जीवों की सार्थक और निरर्थक हिमा से सकुचाता नहीं५ । वह जब कभी रोग-ग्रस्त होता है, तब अपने किए कमों को स्मरण कर पछताता है | परलोक से डरता भी है। अनुभव बताता है कि मर्मान्तिक रोग और मृत्यु के समय बड़े-बड़े नास्तिक कॉप उठते हैंनास्तिकता को तिलाञ्जलि दे आस्तिक बन जाते हैं। अन्तकाल में अक्रियाबादी को यह सन्देह होने लगता है-"मैंने सुना कि नरक है , जो दुराचारी जीवों की गति है, जहाँ क्रूर कर्मवाले अज्ञानी जीवों को प्रगाढ़ बेदना सहनी पड़ती है। यह कहीं सच तो नहीं है। अगर सच है तो मेरी क्या दशा होगी!" इस प्रकार वह संकल्प-विकल्प की दशा में मरता है। क्रियावाद का निरूपण यह रहा कि "आत्मा के अस्तित्व में सन्देह मत करो "। वह अमूर्त है, इसलिए इन्द्रियप्राय नहीं है। वह अमूर्त है, इसलिए नित्य है।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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