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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व १३ भौतिकवाद का लक्ष्य है-समाज की वर्तमान अवस्था का सुधार । अब हम देखते हैं कि दर्शन शब्द जिस अर्थ में चला, अब उसमें नहीं रहा । हरिद्रसूरि ने वैकल्पिक दशा में चार्वाक मत को छह दर्शनों में स्थान दिया है " मार्क्स - दर्शन भी श्राज लब्धप्रतिष्ठ है, इसलिए इसको दर्शन न मानने का आग्रह करना सत्य से श्रीखें मंदने जैसा है । दर्शनों का पार्थक्य दर्शनों की विविधता या विविध विषयता के कारण 'दर्शन' का प्रयोग एकमात्र श्रात्मविचार सम्बन्धी नहीं रहा । इसलिए अच्छा है कि विषय की सूचना के लिए उसके साथ मुख्यतया स्वविषयक विशेषण रहे। आत्मा को मूल मानकर चलनेवाले दर्शन का मुख्यतया प्रतिपाद्य विषय धर्म है। इसलिए श्रात्ममूलक दर्शन की 'धर्म-दर्शन' संज्ञा रखकर चलें तो विषय के प्रतिपादन में बहुत सुविधा होगी । धर्म दर्शन का उत्स प्राप्तवाणी ( श्रागम ) है । ठीक भी है। आधार-शून्य frere पद्धति किसका विचार करें, सामने कोई तत्त्व नहीं तब किसकी परीक्षा करे ? प्रत्येक दर्शन अपने मान्य तत्त्वों की व्याख्या से शुरू होता है। सांख्य या जैन दर्शन, नैयायिक या वैशेषिक दर्शन, किसी को भी लें सब में स्वाभिमत २५, ६, ४६, या ६ तत्वों की ही परीक्षा है। उन्होंने ये अमुक अमुक संख्या बद्ध तत्व क्यों माने, इसका उत्तर देना दर्शन का विषय नहीं, क्योंकि वह सत्यद्रष्टा तपस्वियों के साक्षात् दर्शन का परिणाम है। माने हुए तत्त्व सत्य हैं या नहीं, उनकी संख्या संगत है या नहीं, यह बताना दर्शन का काम है । दार्शनिकों ने ठीक यही किया है। इसीलिए यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि दर्शन का मूल आधार आगम है। वैदिक निरुक्तकार इस तथ्य को एक घटना के रूप में व्यक्त करते हैं। ऋषियों के उत्क्रमण करने पर मनुष्यों ने देवताओं से पूछा - "अब हमारा ऋषि कौन होगा ? तब देवताओं ने उन्हें तर्क नामक ऋषि प्रदान किया ४” संक्षेप में सार इतना ही है कि ऋषियों के के समय में आग्रम का प्राधान्य रहा। उनके अभाव में उन्हीं की वाणी के आधार पर दर्शन शास्त्र का विकास हुआ ।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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