SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्व . २११ प्राणी-जगत् के प्रति पुद्गल का उपकार आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन ये छह जीव की मुख्य क्रियाएं हैं। इन्हों के द्वारा प्राणी की चेतना का स्थूल बोध होता है । प्राणी का आहार, शरीर, दृश्य, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास और भाषा-ये सब पौद्गलिक हैं। मानसिक चिन्तन भी पुद्गल-सहायापेक्ष है। चिन्तक चिन्तन के पूर्व क्षण में मन-वर्गणा के स्कन्धों को ग्रहण करता है। उनकी चिन्तन के अनुकूल प्राकृतियाँ बन जाती हैं। एक चिन्तन से दूसरे चिन्तन में संक्रान्त होते समय पहली-पहली प्राकृतियाँ बाहर निकलती रहती है और नई-नई श्राकृतियाँ बन जाती हैं। वे मुक्त प्राकृतियाँ आकाश-मण्डल में फैल जाती हैं। कई थोड़े काल बाद परिवर्तित हो जाती हैं और कई असंख्य काल तक परिवर्तित नहीं भी होती। इन मन-वर्गणा के स्कन्धों का प्राणी के शरीर पर भी अनुकूल एवं प्रतिकूल परिणाम होता है। विचारों की दृढ़ता से विचित्र काम करने का सिद्धान्त इन्हीं का उपजीवी है। यह समूचा दृश्य संसार पौद्गलिक ही है। जीव की समस्त वैभाविक अवस्थाएं पुद्गल-निमित्तक होती हैं। तात्पर्य-दृष्टि से देखा जाए तो यह जगत् जीव और परमाणुओं के विभिन्न संयोगों का प्रतिबिम्ब (परिणाम) है । जैन-सूत्रों में परमाणु और जीव-परमाणु की संयोगकृत दशाओं का अति प्रचुर वर्णन है । भगवती, प्रज्ञापना और स्थानाङ्ग आदि इसके आकर-प्रन्य । 'परमाणु-षट्त्रिंशिका' आदि परमाणुविषयक स्वतन्त्र ग्रन्थों का निर्माण जैनतत्त्वज्ञों की परमाणुविषयक स्वतन्त्र अन्वेषणा का मूर्त रूप है। आज के विज्ञान की अन्वेषणाओं के विचित्र वर्ण इनमें भरे पड़े हैं। भारतीय वैज्ञानिक जगत् के लिए यह गौरव की बात है। एक द्रव्य-अनेक द्रव्य समानजातीय द्रव्यों की दृष्टि से सब द्रव्यों की स्थिति एक नहीं है। छह द्रव्यों में धर्म, अधर्म और आकाश-ये तीन द्रव्य एक द्रव्य है-व्यक्ति रूप से एक हैं। इनके समानजातीय द्रव्य नहीं हैं। एक-द्रव्य द्रव्य व्यापक होते हैं।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy