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________________ ... जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व 400. धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय। ये दोनों स्थिर और व्यापक बस ये ही अखंड श्राकाश को दो भागों में बांटते हैं। यही लोक की प्राकृतिक सीमा है। ये दो द्रव्य जिस आकाश-खण्ड में व्याप्त है, वह लोक है और शेष आकाश अलोक । ये अपनी गति, स्थिति के द्वारा सीमा निर्धारण के अपयुक बनते हैं। ये जहाँ तक है वहीं तक जीव और पुद्गल की गति, स्थिति होती है। उससे आगे उन्हें गति, स्थिति का सहाय्य नहीं मिलता, इसलिए ये अलोक में नहीं जा सकते। गति के बिना स्थिति का प्रश्न ही क्या ! इससे उनकी नियामकता और अधिक पुष्ट हो जाती है। लोक-अलोक का परिमाण ___ धर्म और अधर्म ससीम है-चौदह राजू परिमाण परिमित है। इसलिए लोक भी सीमित है । लौकाकाश असंख्यप्रदेशी है । अलोक अनन्त असीम है। इसलिए अलौकाकाश अनन्तप्रदेशी है। भौतिक विज्ञान के उभट पन्किस अलबर्ट आइन्स्टीन ने लोक-अलोक का जो स्वरूप माना है, वह जैन-दृष्टि से पूर्ण सामन्जस्य रखता है। उन्होंने लिखा है कि-"लोक परिमित है, लोक के परे अलोक अपरिमित है | लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती। लोक के बाहर उस शकि का (द्रव्य का) अभाव है, जो गति में सहायक होता है। स्कन्धक संन्यासी के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा कि क्षेत्रलोक सान्त है. (सीमित है) धर्मास्तिकाय, जो गति में सहायक होता है, वह लोक-प्रमाण है। इसीलिए लोक के बाहर कोई भी पदार्थ नहीं जा सकता। लोक-अलोक का संस्थान लोक सुप्रतिष्ठक आकार वाला है। तीन शरावों में से एक शराब श्रीधा, एसरा सीधा और तीसरा उसके ऊपर औंधा रहने से जो आकार बनता है, उसे सुप्रतिष्ठक संस्थान या त्रिसराबसंपुटसंस्थान कहा जाता है। लोक नीचे विस्तृत है, मध्य में संकड़ा और ऊपर-ऊपर मृदंगाकार है। इसलिए उसका आकार ठीक त्रिशरावसंपुट जैसा बनता है। अलोक का प्राकार बीच में बोल वाले गोले के समान है। अलोकाकाश एकाकार है।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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