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________________ विश्व के आदि-बिन्दु को जिज्ञासा श्रमण भगवान् महावीर के 'श्रार्यरोह' नाम का शिष्य था । वह प्रकृति से भद्र, मृदु, विनीत और उपशान्त था । उसके क्रोध, मान, माया और लोभ बहुत पतले हो चुके थे। वह मृदु मार्दव सम्पन्न अनगार भगवान् के पास रहता, ध्यान संयम और तपस्या से आत्मा को भावित किए हुए बिहार करता । एक दिन की बात है वह भगवान् के पास आया, वन्दना की, नमस्कार किया, पर्युपासना करते हुए बोला "भन्ते । पहले लोक हुआ और फिर अलोक ? अथवा पहले अलोक हुआ और फिर लोक ?” भगवान् - "रोह ! लोक और अलोक - ये दोनों पहले से हैं और पीछे रहेंगे - अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहेंगे। दोनों शाश्वत भाव हैं, अनानुपूर्वी हैं। इनमें पौर्वापर्य ( पहले पीछे का क्रम ) नहीं है। रोह—-भन्ते ! पहले अजीव हुए और फिर जीव ! अथवा पहले जीव हुए और फिर जीव ! भगवान् - रोह ! लोक- अलोक की भांति ये भी शाश्वत हैं, इनमें भी पौर्वापर्य नहीं है । रोह - भन्ते ! ( १ ) पहले भव्य हुए और फिर अभव्य अथवा पहले भव्य हुए और फिर भव्य ! २) भन्ते ! पहले सिद्धि ( मुक्ति ) हुई और फिर असिद्धि ( संसार ) ? अथवा पहले सिद्धि और फिर सिद्धि ? ( ३ ) भन्ते ! पहले सिद्ध ( मुक्त ) हुए और फिर प्रसिद्ध ( संसारी ) १ अथवा पहले सिद्ध हुए और फिर सिद्ध ? भगवान् -रोह ! ये सभी शाश्वत भाव हैं । रोह - भन्ते पहले मुर्गी हुई फिर अंडा हुआ ? अथवा पहले अंडा हुआ फिर मुर्गी ! भगवान् - अण्डा किससे पैदा हुआ ! रोह - भन्ते ! मुर्गी से ।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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