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________________ . जैन दर्शन के मौलिक तय . जाति और गोत्रम ' गोत्रकर्म के साथ जाति का सम्बन्ध जोड़कर कई जैन भी यह तर्क उपस्थित करते हैं कि 'गोत्र कर्म के उच और नीच-ये दो मेद शास्त्रों में बताए है तब जैन को जातिवाद का समर्थक क्यों नहीं माना जाए ! उनका तर्क गोत्र कर्म के स्वरूप को न समझने का परिणाम है "। गोत्र कर्म न तो लोकप्रचलित जातियों का पर्यायवाची शब्द है और न वह जन्मगत जाति से सम्बन्ध रखता है। हां, कर्म (आचारपरम्परा ) गत जाति से पह किचित् सम्बन्धित है, उसी कारण यह विषय सन्दिग्ध बना हो अथवा राजस्थान, गुजरात श्रादि प्रान्तों में कुलगत जाति को गोत कहा जाता है, उस नामसाम्य से दोनों को-गोत और गोत्रकर्म को एक समझ लिया हो। कुछ भी हो यह धारणा ठीक नहीं है। 'गोत्र शब्द' की व्युत्पत्ति कई प्रकार से की गई है। उनमें अधिकांश का तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के द्वारा जीव मानवीय, पूजनीय एवं सत्कारयोग्य तथा अमाननीय, अपूजनीय एवं असत्कारयोग्य बने, वह गोत्रकर्म है। कहीं-कहीं उच्च-नीच कुल में उत्पन्न होना भी गोष-कर्म का फल बतलावा गया है, किन्तु यहाँ उच-नीच कुल का अर्थ ब्राह्मण या शुद्र का कुल नहीं। जो प्रतिष्ठित माना जाता है, वह उच्च कुल है और जो प्रतिष्ठा-हीन है, वह नीच कुल समृद्धि की अपेक्षा भी जैनसूत्रों में कुल के उच-नीच-ये दो मैद बताये गए हैं। पुरानी व्याख्याओं में जो उच्च कुल के नाम गिनाये हैं, वे आज लुप्तप्राय है। इन तथ्यों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि गोत्र कर्म मनुष्य-कल्पित जाति का प्रामारी है, उस पर झाभित है। यदि ऐसा माना जाए तो देव, नारक और तिर्यञ्चों के गोत्र-कर्म की क्या व्याख्या होगी, उनमें यह जाति-भेद की कहना है ही नहीं। हम इतने र क्यों जाएं, जिन देशों में वर्ण-व्यवस्था या जन्मगत ऊंच-नीच का भेद-भाव नहीं है, यहाँ गोत्रकर्म की परिभाषा क्या होगी ! गोत्र कर्म संसार के प्राणीमात्र के साथ लगा हुआ है। उसकी दृष्टि में भारतीय और प्रभारतीय का सम्बन्ध नहीं है। इस प्रसंग में गोष-कर्म का फल क्या है, इसकी जानकारी अधिक उपयुक्त होगी।. . . . . . ..
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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