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________________ ११४] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व (४) शरीर-अंगोपांग-नाम-शरीर के अवयवों और प्रत्यवयवों की प्रांति के निमित्त कर्म-पुद्गल। (क) औदारिक-शरीर अंगोपांग-नाम-औदारिक शरीर के अवयवों और प्रत्यवयवों की प्राप्ति के निमित्त कर्म-पुद्गल । (ख ) वैक्रिय-शरीर-अंगोपांग-नाम-चैक्रिय शरीर के अवयवों और प्रत्यवयवों की प्राप्ति के निमित्त कर्म-पुद्गल । (ग) आहारक-शरीर अंगोपांग नाम--श्राहारक शरीर के अवयवों और प्रत्यवयवों की प्राप्ति के निमित्त कर्म-पुद्गल । (घ) तैजस और कार्मण शरीर अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं, इसलिए इनके अवयव नहीं होते। (५) शरीर-बन्धन-नाम-पहले ग्रहण किये हुए और वर्तमान में ग्रहण किए जाने वाले शरीर-पुद्गलों के पारस्परिक सम्बन्ध का हेतुभूत कर्म। . (क) औदारिक-शरीर-बन्धन-नाम-इस शरीर के पूर्व-पश्चाद् गृहीत पुद्गलों का आपस में सम्बन्ध जोड़ने वाला कम । (ख) वैक्रिय-शरीर-बन्धन-नाम- ऊपरवत् । (ग) आहारक, " " - " (घ) तेजम , , ,, - " (ङ) कार्मण , , , - " कर्म ग्रन्थ में शरीर-बन्धन नाम-कर्म के पन्द्रह भेद किये गए हैं(१) औदारिक औदारिक बन्धन नाम । (२) औदारिक तैजस् (३) , कार्मण (४) वैक्रिय वैक्रिय (५) , तेजस " " (६) , कार्मण (७) श्राहारक आहारक , " (८) , तेजस , , (६) , कार्मण बन्धन नाम ।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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