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________________ "मलावृतमणेयक्तिर्ययानकविक्ष्यते । कर्मावतात्मनस्तवत्, योग्यता विविधा न किम् ॥" -तत्त्वार्थ-श्लोक वार्तिक-१६१ "आत्मा तदन्यसंयोगात् , संसारी तवियोगतः। स एव मुक्त एतौ च, तत् स्वाभाव्यात्तयो स्तथा ॥" -योगबिन्दु भारत के सभी आस्तिक दर्शनों में जगत् की विभक्ति,' विचित्रता' और साधन तुल्य होने पर भी फल के तारतम्य या अन्तर को सहेतुक माना है। उस हेतु को वेदान्ती 'अविद्या,' बौद्ध 'वासना' सांख्य 'क्लेश' और न्यायवैशेषिक 'अदृष्ट' तथा जैन 'कर्म' कहते हैं । कई दर्शन कर्म का सामान्य निर्देशमात्र करते हैं और कई उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करते-करते बहुत आगे बढ़ जाते हैं। न्याय दर्शन के अनुसार अदृष्ट आत्मा का गुण है। अरछे-बुरे कर्मों का आत्मा पर संस्कार पढ़ता है, वह अदृष्ट है। जब तक उमका फल नहीं मिल जाता, तब तक वह श्रात्मा के माथ रहता है। उसका फल ईश्वर के माध्यम से मिलता है ५। कारण कि यदि ईश्वर कर्म-फल की व्यवस्था न करे तो कर्म निष्फल हो जाए। सांख्य कर्म को प्रकृति का विकार मानता है। अच्छी चुरी प्रवृत्तियों का प्रकृति पर संस्कार पड़ता है। उस प्रकृतिगत-संस्कार से ही कर्मों के फल मिलते हैं। बौद्धों ने चित्तगत वासना को कर्म माना है। यही कार्य कारण-भाव के रूप में सुख दुःख का हेतु बनती है। जैन-दर्शन कर्म को स्वतन्त्र तत्व मानता है। कर्म अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध हैं। वे समूचे लोक में जीवात्मा की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उसके साथ बंध जाते हैं, यह उनकी बध्यमान (बंध) अबस्था है । बन्धने के बाद उनका परिपाक होता है, वह सत् (सत्ता) अवस्था है। परिपाक के बाद उनसे सुख-दुःख रूप तथा आवरण रूप फल मिलता है, वह उदयमान (उदय) अवस्था है। अन्य दर्शनों में कर्मों की क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध-ये तीन अवस्थाएं बताई गई हैं। वे ठीक क्रमशः बन्ध, सत् और उदय की समानार्थक हैं...बन्ध के प्रकृति, स्थिति, विपाक और प्रदेश-ये चार
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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