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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व १५ हमारी यह पृथ्वी ठंढी होने लगी, वैसे-वैसे इस पर वायु जलादि की उत्पत्ति हुई और उसके बाद वनस्पति की उत्पत्ति हुई। निद्-राज्य हुमा । उससे भीष राज्य हुना। जीव-राज्य का विकासक्रम इस प्रकार माना जाता है पाले सरीसृप हुए, फिर पक्षी, पशु, बन्दर और मनुष्य हुए। ___ डार्विन के इस बिलम्बित "क्रम-विकास- प्रसर्पणवाद को विख्यात प्राणी तत्त्ववेचा "डी. बाइस' ने सान्ध्य-प्रिमरोज (इस पेड़ का थोड़ा सा चारा हालैण्ड से लाया जाकर अन्य देशों की मिट्टी में लगाया गया। इससे अकस्मात् दो नई श्रेणियों का उदय हुआ ) के उदाहरण से प्रसिद्ध ठहरा कर 'प्लुत सञ्चारवाद' को मान्य ठहराया है, जिसका अर्थ है कि एक जाति से दूसरी उपजाति का जन्म आकस्मिक होता है, क्रमिक नहीं। विज्ञान का सृष्टिक्रम असत् से सत् ( उत्पादाद या अहेतुकवाव) है। यह विश्व कब, क्यों और कैसे उत्पन्न हुआ ? इसका आनुमानिक कल्पनाओं के अतिरिक्त कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता...डार्विन ने सिर्फ शारीरिक विवर्तन के आधार पर क्रम विकास का सिद्धान्त स्थिर किया। शारीरिक विवर्तन में वर्ण-भेद, संहनन-भेद'", संस्थान-भेद, लम्बाई-चौड़ाई का तारतम्य, ऐसे ऐसे और भी सूक्ष्म-स्थूल भेद हो सकते हैं । ये पहले भी हुआ करते थे और आज भी होते हैं। ये देश, काल, परिस्थिति के भेद से किसी विशेष प्रयोग के बिना भी हो सकते हैं और विशेष प्रयोग के द्वारा भी। १७६१ ई० में भेड़ों के मुण्ड में अकस्मात् एक नई जाति उत्पन्न हो गई। उन्हें आजकल "अनेकन" भेड़ कहा जाता है। यह जाति, मर्यादा के अनुकूल परिवर्तन है जो यदा तदा, यत् किंचित् सामग्री से हुआ करता है। प्रायोगिक परिवर्तन के नित नए उदाहरण विज्ञान जगत् प्रस्तुत करता ही रहता है। __ अभिनव जाति की उत्पत्ति का सिद्धान्त एक जाति में अनेक व्यक्ति प्राप्त भिन्नताओं की बहुलता के आधार पर स्वीकृत हुआ है। उत्पत्ति-स्थान और कुल-कोटि की भिन्नता से प्रत्येक जाति में भेद-बाहुल्य होता है...उन अवान्तर भेदों के आधार पर मौलिक जाति की सृष्टि नहीं होती। एक जाति उससे मौलिक भेद पाली जाति को जन्म देने में समर्थ नहीं होती। जो जीव जिस जाति में जन्म लेता है, वह उसी जाति में प्राप्त गुणों का विकास - कर
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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