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________________ [३८] यहां पहले उद्धरण में बुद्ध, दूसरे उद्धश्य में सुसमाहित और बन्द, तीसरे इत्य आदि में शब्द का साम्य है । जैन 'वाङ्मय में 'कहा है— पृथिवी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और बीज आदि की हिंसा न करे और न करवाए वह सुनि है पुढ़र्वि' न खणे न खणावर, सीओदगं न पिए न पियावए । अगणिसत्यं जहा सुनिसियं, तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ॥ अनिलेज न वोए न बीयावए, हरियाणि न छिदे न छिदावए । बीयाणि सया विवज्जयन्तो, सच्चितं नाहारए जे स भिक्खू ॥ तथागत के साहित्य में उपर्युक्त पथों की भावाभिव्यक्ति निम्नोक्त प्रकार से उपलब्ध होती है— अर्द्धकतो' वेपि समं चरेय्य, सन्तो दन्तो नियतो बह्मचारी । सब्वैसु भूतेसु निधाय दण्डं, सो बाह्मणो सो समणो स भिक्खू ॥ भगवान महावीर ने जहाँ व्यष्टि रूप से षट् जीविनीकाय के समारम्भ का निषेध किया है वहाँ तथागत ने समष्टि रूप से। इसके अतिरिक्त वहाँ भिक्खु शब्द से शाब्दिक तुलना भी है। जैन वाङ्मय में कहा है-मुनि औद्देशिक आहार न खाए तथा न पकाए और न दूसरों से पकवाए। क्योंकि उसके पकाने में त्रस और स्थावर प्राणियों काव होता है, अतः वह औद्दे शिक भोजन न करे । बहणं * तसथावराण होइ, पुढवितणकट्ठनिस्सियाणं । तन्हा उदे सियं न भुंजे, नो वि पए न पयावर जे स भिक्यू ॥ जिस किसी प्रवृत्ति में आन्तरिक व पारम्परिक हिंसा संभावित हो वह कार्य सुन न करे, क्योंकि हिंसा उसके लिए अकरणीय है । शतपुत्र के वाक्यों को हृदयक्रम करने वाला षट्जीवनीकाय को आत्मतुल्य समके और महाव्रतों का अनुशीलन करता हुआ, जो पाँच आभव द्वारों को रोकता है वह मुनि है; ऐसा आगम साहित्य में माना गया है High १- दशवेकालिक अ० १० गा० २-३ । २- धम्मपद दण्ड० ग्रा० १४ । ३- दशवेकालिक अ० १० गा० ४
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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