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________________ [ २८ ] यह संस्कृति दबकर पुरातत्व की वस्तुमात्र बनी रहती है । भगवान् महावीर जिस धर्म और संस्कृति के पोषक रहे हैं, वह इसीलिए जीवित है, क्योंकि ऐसे लचीलेपन की गुंजाइश स्वयं उन्होंने उसमें कर रखी है। कीमर ने लिखा है कि "जैन धर्म गुप्तता लिए नहीं रहा ।" इसलिये कि महावीर ने उसे समाज में पेश किया एवं वैयक्तिक मोक्षवाद को समाज के साथ जोड़ दिया । सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान व सम्यक् चारित्र्य जैन दर्शनानुसार मोक्ष के साधन हैं। मोक्ष तो साध्य है व ये हैं साधन, जो समाज के आधार से ही चलाये जा सकते हैं। अन्यथा दोनों ही यदि वैयक्तिक बने रहें, तो वह धर्म ऐसी निजी वस्तु बन जाती है, जिनकी समाज में चर्चा करने की भी जरूरत नहीं है। मोक्षसाधना जब समाज-निरपेक्ष होकर चलती है, तो वह उपासना तक ही सीमित रह जाती है। अतः यह साधना-त्रयी लौकिक ही रह सकती है। इसकी 'अल्प' 'मध्य' व 'पूर्ण' आराधना के विधान का मर्म भी यही है। वस्तुतः 'सम्यक्त्व' स्वयमेव इस बात का निदर्शक है कि वह समाज के लिए, जगत् के लिए है । जीवन यदि "प्रवृत्ति - निवृत्ति का समन्वय है,” तो क्रियात्मक पक्ष में प्रवृत्ति के असत् अंश को छोड़कर 'सत्' - अंश ग्रहण करने की भी बात इसीलिये कही गयी है। सत्- अंश को 'सत्य' से अलग नहीं किया जा सकता और सत्य 'सम्यकत्व' का भी वाहक होता है । अमर कोष ने 'सत्य' के चार पर्याय बताए हैं। 'सत्यम्, तथ्यम्, ऋतम् और सम्यक् (सम्यंच) । 'सम्यक् चारित्र्य' में हिंसा - त्याग अनिवार्य है एवं भगवान् महावीर के शब्दों में "सच्चं लोगंमि सारभूयं । " अतः सत्य एवं अहिंसा साथ-साथ चलते हैं । तब सत्य और अहिंसा को एक से कम या अधिक मानना अथवा किसी को गौण या मुख्य मानना सम्यक्त्व के fauta प्रतीत होता है। जैन-मान्यता में सत्य को कभी-कभी गौणत्व देने की जो प्रवृत्ति दीख पड़ती है, स्वयं जैन दर्शन सारतत्व के विपरीत है। तर्क यथा ता से चलता है और यस्तर्केणानुसंघते स धर्म वेद नेतर ! "यथार्थता" लोकपक्ष को लेकर चलती है। 'सत्' भावतत्व से च्युत न हो, इसलिए 'नित्य' माना गया है और नित्यता भी उस यथार्थता का ही समर्थन करती है। 'गुप्ति' में असत् क्रिया का निषेध इसलिए है कि असत् क्रिया यथार्थता के विपरीत होती हैं । सारांश, 'सत्य' को गौण मानने का समर्थन कहीं नहीं दिखाई देता, अतः उसे 'ही' और 'भी' से मर्यादित करना विरोधाभास है। यह चिंतनीय इसलिए है कि लोकपक्ष से अलगाव की वृत्ति उसमें से जन्म ले सकती है।
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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