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________________ [१८] धर्म के क्षेत्र में यह दुराग्रह उन्माद बन जाता है और अनेक रूपों में प्रगट होता है । इसका पहला रूप अहंकार है । प्रत्येक धर्म ने सत्य, अहिंसा आदि उच्च सिद्धान्त उपस्थित किये हैं। वे ज्यों-ज्यों जीवन में उतरते हैं व्यक्ति अधिकाधिक विनम्र तथा शांत होता चला जाता है उसकी दृष्टि अपने दोषों पर रहती है और दूसरे के गुणों पर । किन्तु जब वे नहीं पचते तो उनका नारा लगाकर 1 अपने को ऊंचा सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। हमारा लक्ष्य आत्मशुद्धि के स्थान पर अहंकार की पूर्ति बन जाता है। यह दो प्रकार से की जाती है। पहला प्रकार साम्प्रदायिक घृणा का है। प्रत्येक धर्म नायक तथा उसका अनुयायी दूसरे सम्प्रदाय के प्रति घृणा प्रगट करके अपने अहंकार का पोषण करता है । दूसरा रूप वैयक्तिक अहंकार का है, जहां आध्यात्मिक गुण न होने पर भी वेश-भूषा आदि के आधार पर एक व्यक्ति अपने को दूसरे व्यक्ति से उत्कृष्ट समझने लगता है। एक जगह उन्माद साम्प्रदायिकता का रूप ले लेता है और दूसरी जगह बाह्य प्रदर्शन का । दोनों परिस्थितियों में सत्य पीछे छूट जाता है और मिथ्या अहंकार जीवन का संचालन करने लगता है । अनपचे विचारों का दूसरा रूप अन्धश्रद्धा है । उपनिषदों में सत्य के साक्षात्कार की तीन दशाएं बताई गई हैं। पहली दशा श्रवण की है, इसका अर्थ है, शास्त्र या गुरु की बात को श्रद्धापूर्वक सुनना । उस समय, उसके सत्यासत्य की ओर ध्यान नहीं दिया जाता, केवल यह जानने का प्रयत्न रहता है कि क्या कह रहे हैं। दूसरी दशा मनन की है, इसका अर्थ है युक्तिपूर्वक विचार करना कि वह बात कहाँ तक ठीक है । तीसरी दशा निदिध्यासन की है अर्थात् उस सत्य का साक्षात्कार करना या जीवन में उतारना । इस दशा में विचारों का परिपाक हो जाता है । जो व्यक्ति दूसरी दशा को नास्तिकता कहकर पहली ही में बैठा रहता है उसका विकास नहीं होता । धारणाएं अपने आप में सत्य होने पर भी उसके लिये मिथ्यात्व का रूप ले लेती हैं क्योंकि वह उन्हें कदमाह पूर्वक पकड़ता है। उसकी बुद्धि प्रकाश प्राप्त करने के स्थान पर अन्धकार में भटकती रहती हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में सम्यग्ज्ञान का यही भेद किया गया है । एक ही धारणा जब समझ कर बनाई जाती है तो वह सम्यग्ज्ञान में आती है । उसीका आधार यदि दुराग्रह है तो मिथ्या हो जाती है । यह दुराग्रह कहीं प्रवर्त्तक, कहीं शास्त्र, कहीं परम्परा और कहीं बाह्य आचार को लेकर खड़ा होता है। प्रायः देखा गया है कि विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी प्रत्येक विचार
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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