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________________ [८] में ही मिलती है। अपभ्रंश की अभी तक ऐसी कोई रचना नहीं मिल सकी है। अपनश में प्राकृत की भाँति धार्मिक वातावरण में ही नहीं लोक-जीवन की उन्मुक्त दशाओं में भी स्वतन्त्र भाव-भूमि पर लोकगाथाओं को प्रेम एवं रसमयी वाणी प्रदान की गई है। उनमें लोक-चेतना का सहज प्रवाह लक्षित होता है। तथा मामन्तकालीन आभिजात्य वर्ग के सामाजिक रूप का स्पष्ट दर्शन होता है। अपनश के कथाकाव्यों में प्रयुक्त अधिकतर कथाएं प्रेम गाधाएं हैं जो किन्हीं विभिन्न उद्देश्यों से कई उपकथाओं के साथ जुड़ी हुई है और उद्देश्य-प्रधान होने के कारण कई स्थलों पर धार्मिक वातावरण में अभिव्यक्त की गई है। चरितकाव्यों की कथाओं में मोड़ तथा परिवतन कम है। क्योंकि उनमें आरम्म से ही नायक को अमाधारण एवं अतिलौकिक रूप में चित्रित किया जाता है। देव लोग उनका स्नान-अभिषेक करते हैं। तरह-तरह के साधन जुटाते हैं और उनके अतिशय रूप तथा स्वरूप से ही पहले से ही प्रभावित एवं आकर्षित रहते हैं। किन्तु कथाकाव्य में दुःख-सुख मूली में भूलते हुए, संघष-विघर्षों से टकराते हुए, आशा-निराशा में उबतेउतराते हुए नायक अपने जीवन का स्वयं निर्माण करते हैं और साधारण से साधारण पुरुष की भांति दुःख तथा वेदनाओं को झेलते हैं। ___यद्यपि चरितकाव्यों में भी नायक के साहस तथा शूर-चीरता के कार्य व्यापारों का वर्णन रहता है पर वह अतिलौकिक शक्तियों से प्रेरित तथा समन्वित होता है। इसलिये उसमें सहज ही देवी भाव लक्षित होता है। पुराणो की भांति चरितकाव्यो में प्रायः एक से अधिक कथाएं एक साथ वर्णित देखी जाती है। कथा मे से कथा फूट कर जन्म-जन्मान्तरो की घटनाओं तथा इतिवृत्तो से इस प्रकार संयुक्त हो जाती है मानो कथा का ही मुख्य अंग हो। चरितकाव्यो की अपेक्षा कथाकाव्यों में इस प्रकार की चिप्पियां कम लगी मिलती है और कम से कम पूर्वार्द्ध कथाओं तथा घटनाओं में ऐमा व्यवस्थित क्रम मिलता है कि क्रियान्विति का सूत्र कही से भी विच्छिन्न नहीं जान पड़ता है। परन्तु चरितकाव्यों में क्रियान्विति का निर्वाह नहीं देखा जाता है। चरितों के माध्यम से अपभ्रंश कवियों ने किसी-किसी चरितकाव्यो में धार्मिक उद्देश्य भी प्रकट किया है। महाकवि पुष्पदन्त ने “जसहरचरिउ" की रचना "अहिंसा परम धर्म है" इस मान्यता को प्रभावशाली ढंग से प्रकट करने के लिए की है। और इस उद्देश्य के साथ ही ग्रन्थ की भी समाप्ति हो जाती है। हिन्दी के प्रेमाख्यानकों में भी यही प्रवृत्ति मिलती है।
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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