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________________ [ १९ ] - निम्गण्ठ नाथपुत से इसी प्रकार पूछने पर उसने चतुर्याम सम्बर का प्रति- . पादन करते हुए कहा-महाराज! निम्गण्ठ इन चार सम्बरों से संबंत रहता है। इसलिए वह निर्मन्य, गवात्मा, यतात्मा और स्थितात्मा कहलाता है। भन्ते ! इस प्रकार श्रामण्य का प्रत्यक्ष फल पूछने पर निग्गण्ठ नाथपुर ने चतुर्याम सम्बर का वर्णन किया। जैसे कि मन्ते ! पूछे आम और जबाव दे कटहल का, पूछे कटहल और जबाव दे आम का। भन्ते। मैने सोचाकैसे मेरे जैसा कोई राजा अपने देश में बसने वाले किसो श्रमण या ब्राह्मण को देश-निकाला दे। यह सोच मैंने न उनके वचन का अभिवादन दिया और न निन्दा । चुपचाप आसन से उठ चल दिया। भन्ते ! अब श्रामण्य का प्रत्यक्ष फल आप ही बताएं। समीक्षा उपरोक्त उल्लेख सत्य के कितना निकट है यह जैन-दर्शन तथा महावीर के सिद्धान्तों के विज्ञ स्वतः ही निर्णय कर सकते हैं। जैन सिद्धान्त के अनुसार मध्य के वावीम तीर्थकर ही चतुर्याम-संवर के प्ररूपक थे। प्रथम व अन्तिम तीर्थकर तो 'पंचमहावतात्मक' धर्म के प्रवर्तक थे।' जब भ० महावीर चतुर्याम-संवर के प्ररूपक थे ही नहीं तो मगधराज के श्रामण्य फल विषयक पूछने पर उसका वर्णन ही कैसे कर मकते थे? हो सकता है कि भ. पार्श्वनाथ के श्रमणों से मगधराज मिला हो तथा उस समय उक्त प्रसंग चला हो। क्योंकि भ० पार्श्वनाथ चतुर्याम संवर-धर्म के प्ररूपक थे। भ. महावीर के पश्चात् भी उनकी परम्परा अक्षुण्ण थी। पर उनके प्ररूपित मिद्धान्त को भगवान् महावीर के साथ अन्यथा जोड़ना तो उचित नहीं लगता। भ० महावीर और गौतम बुद्ध दोनों में से वर्षों तथा प्रव्रज्या को दृष्टि से ज्येष्ठ या कनिष्ठ कौन थे? --यह प्रश्न आज भी अनेकों मनीषियों को १-(क) मज्झिमगा वावीसा अरहंता-भगवन्ता चाउज्जाम-धम्म पण्णवेति। तं जहा-सव्वातो पाणाइवायातो वेरमणं । एवं मुसावायातो वेरमणं, मव्वातो जयिन्नादाणातो वेरमणं, सव्वाती वहिदादाणातो वेरमणं ॥ (स्थानांग सूत्र २६६) (ख) अहिंसमच्चं च अतेजगं च, ततो य वम्मं च अपरिगहं च । पडिवज्जिया पंचमहव्वयाई, चरिज्ज धम्म जिणदेसियं विऊ ॥ [ उत्तराध्ययन २१-२२]
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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