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________________ [ १५२ ] जैसे निशीथ और विनयपिटक, सूत्रकृतांग और दीर्घनिकाय, स्थानांग, अंगुतर निकाय आदि । जैनागम तथा बौद्ध वाङ्मय के अध्ययनकाल में प्रतीत होता है कि मानो हम एक ही वायु मण्डल में श्वास ले रहे हैं। एक ही समाज, भूभाग तथा वातावरण में विचर रहे हैं, निष्कर्ष की भाषा में भगवान् महावीर तथा महात्मा बुद्ध के जीवन तथा पारिपाश्विक वातावरण में हम जितनी आश्चर्यजनक समानताएं पाते हैं, उनका शतांश भी तत्कालीन तथाकथित तीर्थकरों में नहीं पाते । भगवान् महावीर एवं महात्मा बुद्ध के बहुमुखी व्यक्तित्व ने क्रमशः जेन और बोद्ध वाहमय में विश्लेषण के साथ अत्यन्त निखार पाया है। यह अस्वाभाषिक भी नहीं; न ही इसमें कोई नवीनता भी है। पर जिज्ञासा का विषय तो यह है कि वे दोनों महापुरुष एक दूसरे के साहित्य दर्पण में प्रतिबिम्बित हुए हैं या नहीं ? यदि हुए हैं तो कैसे ? बर्तमान अनावृत होता है । अतीत होता है काल की अनन्त परतों से आवृत । उन परतों को दूरकर अतीत के पर्यवेक्षण के लिए साहित्य ही हमारा एकमात्र आधार हो सकता है। अतः दोनों महापुरुषों के जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाले साहित्य के पठन से, हमारे कितने ही उभरते हुए प्रश्न स्वतः समाहित हो सकते हैं कि कालक्रम तथा जीवन व्यवहार से निकटतम होने बाली दोनों विभूतियाँ क्या कभी मिली भी हैं ? यदि हाँ तो उनके तथा उनके अनुयायियों के पारस्परिक सम्बन्ध क्या तथा कैसे रहें होंगें ? उनकी पारस्परिक तत्व - चर्चाएं क्या रही होंगीं ? जैन और बौद्ध साहित्य में क्रमशः महावीर का क्या स्थान रहा है आदि-आदि । वस्तुतः ये प्रश्न आज के चिन्तकों तथा इतिहासों को विशेष चिन्तन के लिए प्रेरित करते हैं । दोनों परम्पराओं के साहित्य - पर्यवेक्षण से यह तत्त्व स्पष्ट हो जाता है कि वे दोनों महापुरुष एक ही ग्राम तथा नगर में, एक साथ कई बार विहार कर चुके हैं, लेकिन वे कभी साक्षात् मिलें हों या तत्त्व चर्चाएं की हों, ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता। हाँ, उनके शिष्य आपस में अनेकशः मिले हैं, अनेक बार चर्चाएं भी की हैं। हो सकता है वह युग आज की भाँति समन्त्रय प्रिय नहीं था। यही कारण हो सकता है कि किसी भी धर्माचार्य ने मिलन के मधुर वातावरण में समन्वय की बातें की हों, ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । आश्चर्य तब होता है जबकि समसामयिक होने पर भी महात्मा बुद्ध के विषय में जैनागमों को हम नितान्त मौन पाते हैं। यद्यपि उनकी मान्यताओं
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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