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________________ बौद्ध साहित्य में भगवान् महावीर साध्वीat saart बुराई के प्रतीकार का इतिहास उतना ही पुराना है जितना उसकी अभिव्यक्ति का । पतन बहुमुखी होता है। अतएव एकमुखी प्रयत्न से उसका प्रतीकार भी असंभव है। बुराईयों के शैल के प्रध्वंसन के लिए चौमुखी प्रहारों की अपेक्षा है । यही कारण हो सकता है कि ई० पू० छठी शताब्दी में पतनशील तथा जड़ताकान्त मानव मस्तिष्क में क्रान्ति-स्वर मँकृत करने समग्र भूमण्डल पर अनेकों दिव्य विभूतियाँ अवतरित हुईं। इसीलिए वह युग 'अबतारवाद' की अभिधा से अभिहित होता है । वह युग बौद्धिक उथल-पुथल का युग था । बौद्धिक बेचैनी, शंका तथा कोलाहल उस युग की प्रमुख विशेषताएं थीं। यह कहना भी अतिरंजित न होगा कि वह काल मनुष्यों की चिन्तन गुत्थियों को उलझाने व सुलझाने के लिए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण था । इस अवसर से केवल भारतवर्ष ही लाभान्वित नहीं हो रहा था, अपितु समग्र भूमण्डल ही इस अभिनय का रंगमञ्च बना हुआ था । उस समय विदेशों में जहाँ चीन में 'लाओजी' तथा 'कन्फ्यूसियस', यूनान में पिथेगोरस, ईरान में पारसी धर्म के पैगेम्बर अरथुस्त्र और पिलस्तीन में दो पैगेम्बर 'जिरेमिया' तथा 'इजकिल' जैसे महान् चिन्तकों ने जन्म पाकर वहाँ के कण-कण को नव नव उन्मेष दिये, वहाँ भारतवर्ष मी दार्शfor तथा बौद्धिक विचारों का जमघट बना हुआ था । इस छोटे से भूमण्डल पर एक साथ सात धर्म तीर्थकरों का विहार ही इसका पुष्ट प्रमाण है । ' इनमें प्रथम पाँच धर्मनायकों के अभिमत- बीज यद्यपि यत्र-तत्र बिखरे प्राप्त हो सकते हैं पर न उनका जीवित संगठन हमें वर्तमान में उपलब्ध है और न साहित्य व इतिहास में उन्हें बहुत उन्नत स्थान मिला है। विषय में विचार करना प्रस्तुत निबन्ध का विषय नहीं । अतः उनके वर्तमान में जिनका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से अधिक नैक १ - पूर्ण काश्यप, मंखलिपुत्तगोशाल, अजित केशकम्बली, प्रकुध कात्यायन, संजय बेलपित्त, निम्गण्ठ नातपुत्त, तथागत गौतम ।
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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