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________________ जैनदर्शन और पाश्चात्य दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन [ शि० सा० वि० अग्रणी साध्वीश्री मन्जुला ] मनुष्य का मस्तिष्क अगणित शक्तियों का स्रोत है। उनमें तीन शक्तियाँ प्रधान हैं—स्मृति, कल्पना और ज्ञान । क्रमशः स्मृति से इतिहास, कल्पना से काव्य और शान से दर्शन की सृष्टि हुई, ऐसा माना जाता है। हमारे जीवन का आन्तरिक पक्ष इतिहास और काव्य की अपेक्षा दर्शन पर अधिक अबलंबित है। अतः दर्शन हमारा निकटतम एवं अन्तरंग सहचर है । I दर्शन शब्द आज तक अनेक अर्थों का स्पर्श कर चुका है और फिर भी अव्यक्त है । क्योंकि आज तक दर्शन को चिन्तन, तर्क, बेश में ही रखा गया जब कि वह इनसे सर्वथा परे है। का अखण्ड और सर्वांगीण अर्थ है-सत्य का साक्षात्कार । अन्वेषण आदि के परि प्रस्तुत प्रसंग में दर्शन तत्त्वतः दार्शनिक वही होता है जो निर्व्यवहित आत्मा से सत्य को साक्षात् करता है । इस अर्थ में आज कोई दार्शनिक है ही नहीं। फिर भी हम स्वयं को या दूसरों को दार्शनिक की उपाधि देते हैं, वह इस अर्थ में कि आत्मा से सत्य का साक्षात्कार दर्शन चरम रूप है। इससे पूर्व उसे भी दर्शन कहा जाता है कि सत्यद्रष्टा ने जो सत्य दिया, उसे हम मानस से, इन्द्रियों से, आगम से, अनुमान से, तर्क से, युक्ति व अन्य साधनों से देखते हैं। वह हमारा ज्ञान भी दर्शन का एक अंश ही है। तत्त्व उपलब्धि की दृष्टि से दर्शन एक रूप है । उसकी व्यापकता को काल और क्षेत्र की सीमाएं भी नहीं बाँध सकती; लेकिन विचार की दृष्टि से हर दर्शन परस्पर भिन्न हैं । भिन्न-भिन्न क्षेत्र और काल में जन्मे व्यक्ति एक ही सत्य को अनेक रूपों में देखते हैं। सम क्षेत्र व समकालीन व्यक्तियों की धारणाएं भी भिन्न-भिन्न होती हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि "मुण्डे - मुण्डे मतिभिन्ना”, प्रत्युत आश्चर्य का विषय तो यह है जहाँ भिन्न देश और भिन्न काल की धारणाएं एक होती हैं। जैन-दर्शन के साथ भारतीय दर्शनों में परस्पर उतना साम्य नहीं जितना पाश्चात्य दर्शनों से है । यद्यपि पाश्चात्य दर्शनों की कोई अविच्छिन्न परम्परा
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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