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________________ [ १२१ । आई ककुमार और वेदान्ती . वेदान्ती-हम दोनों एक समान धर्म को मानने वाले हैं। त्रिकाल में धर्म में आचार प्रधानशील और शान को आवश्यक मानते हैं। पुनर्जन्म के सम्बन्ध में भी मतभेद नहीं। परन्तु हम एक लोक व्यापी, सनातन, अक्षय और अव्यय आत्मा को मानते है। वही सब भूतों को इस प्रकार व्याप रहा है, जैसे चन्द्र तारों को। आईक :-यदि ऐसा ही हो तो फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रेग्य इसी प्रकार कीड़े, मकोड़े, पक्षी, सांप, मनुष्य और देव सरीखे मेद न रह पाएंगे। इसी प्रकार विभिन्न सुख-दुःखों का अनुभव करते हुए वे संसार में भटकेंगे ही क्यों ? केवल ज्ञान से सम्पूर्ण लोक को जाने बिना जो उपदेश देते हैं वे अपने को और दूसरों को क्षति पहुंचाते हैं। सम्पूर्ण ज्ञान से लोक के स्वरूप को समझ कर और पूर्ण ज्ञान से समाधियुक्त होकर जो सम्पूर्ण धर्म का उपदेश करते हैं, वे स्वयं तरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं। __ हे आयुष्मान् ! इस प्रकार तिरस्कार करने योग्य शान वाले वेदान्तियों और सम्पूर्ण ज्ञान, दर्शन, चारित्र सम्पन्न जिनों को अपनी समझ से समान कहकर तुम स्वयं अपनी ही विपरीतता प्रगट कर रहे हो । आद्र ककुमार और हस्तितापस तदनन्तर हस्तितापस से चर्चा हुई। हस्तितापस' :-एक वर्ष में एक महागज को मारकर शेष जीवों पर अनुकम्पा करते हुए हम एक वर्ष पर्यन्त उसी से निर्वाह करते हैं। मुनि आईक :-एक वर्ष में एक जीव मारते हुए निर्दोष नहीं कहे जा सकते, भले ही अन्य जीवों को नहीं मारते हो। अपने लिए एक जीव का वध करने वाले तुम और गृहस्थों में क्या भेद है ? तुम्हारे समान विपरीत बुद्धि रखने वाले केदल-शान नहीं पा सकते। अस्तु, इस प्रकार की विस्तृत चर्चा शास्त्रों में उपलब्ध होती है ; जो हमारी ज्ञान-वृद्धि में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। औपपातिक सूत्र में एक स्थल पर गंगा के तट पर बसे वानप्रस्थ तापसी का उल्लेख मिलता है। इस प्रसंग में निम्नलिखित तापस गिनाए गए है: (१) होत्तिय-अग्निहोत्र करने वाले। (२) पोत्तिय-वस्त्रधारी तापस । १-सू० २२६ १० १० १५६ । २-०२०३८५० १७-१७१।
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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