SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ६४ ] इस प्रकार व्रात्यों का स्वरूप हमारे समक्ष इस प्रकार आता है कि वे किसी आर्य-भिन्न सम्पन्न परम्परा के अनुयायी थे। यात्मा का उन्हें शान था, अध्यात्म-साधना उनका प्रमुख लक्ष्य था। एक भिक्षु की तरह वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर अध्यात्म-विद्या का प्रसार करते हुए पर्यटन करते रहते थे। बे जहाँ भी जाते, सभी प्रकार के लोग उनके सामने नतमस्तक हो जाते थे। स्वयं इन्द्र, आदित्य, देवगण, वेल्प, वेराज, वरुण आदि के द्वारा वे सम्मान्य ही न थे, वे उनका अनुसरण भी करते। उनका नेता एक व्रात्य था। जिसके नेतृत्व में समूचा संघ चलता था। आयौँ में उनके प्रति मानसिक गहीं होने पर भी अथर्ववेद में उद्गीत माहात्म्य इस तथ्य को उद्घाटित करता है कि प्रभावशाली आत्म-सम्पन्न और सुसंगठित होने के कारण आर्यों को भी उन्हें उच्च स्थान देना पड़ा। १-अथर्ववेद १५।११।६
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy