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________________ पर उसका हृदय रो पड़ा। वह सन्त के चरणों में गिर पड़ा, यह कहते हुए कि मनुष्य-मनुष्यमें इतना अन्तर हो सकता है, जितना मेरे में और बल्लुवर संत में, यह मैंने पहली बार जाना है। कहा जाता है, इस घटना के पश्चात् वह शरारती युवक सदा के लिए मला हो गया। उसका पिता और वह सदा के लिए वल्लुवर के भक्त हो गए और वे बल्लवर का परामर्श लेकर ही प्रत्येक कार्य करने लगे। जैन-रचना 'कुरल' और 'वल्लुवर' के विषय में उक्त सारी धारणाएँ तो जनश्रुति के अनुसार पल ही रही है, पर अब इस समय विषय पर इतिहास भी कुछ करवट लेने लगा है। वल्लुवर संत-श्रेणी के व्यक्ति और विलक्षण मेधावी थे, इसमें कोई सन्देह नहीं, पर उन्हें वह शान कहां से मिला; यह विषय सर्वथा अस्पष्ट था। अब बहुत सारे आधारों से प्रमाणित हो रहा है कि बल्लुवर जेन आचार्य कुन्द-कुन्दके शिष्य थे, और 'कुरल' उनकी रचना है। वल्लुवर 'करल' के रचयिता नहीं, प्रसारक मात्र थे। यह एक सुविदित विषय है कि जैन धर्म किसी एक परिस्थिति विशेष में उत्तर भारत से दक्षिण भारत में गया। इतिहास बताता है-बारह वर्षों के दीर्घकाल के समय उत्तर भारत में माधु-चर्या का निर्वाह कठिन होने लगा था। उस समय भगवान् महावीर के सप्तम पट्टधर श्रुत केवली श्री भद्रबाहु स्वामी साधु-साध्वियों और और भावक-श्राविकाओं के एक महान संघ के साथ दक्षिण भी आए। सम्राट चन्द्रगुप्त भी दीक्षित होकर उनके साथ आए थे। वह संघ यात्रा कितनी बड़ी थी, इसका अनुमान इस बातसे लग सकता है कि १२००० साधु भावकों का परिवार तो केवल प्रबजित सम्राट चन्द्रगुप्त का था। __मैसूर राज्य में ऐसे अनेक शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जिनसे भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का कन्नड़ प्रदेश में आना और दीर्घकाल तक जेन धर्म का प्रचार करते रहना प्रमाणित होता है। भद्रबाहु के दक्षिण जानेवाले शिष्यों में प्रमुखतम विशाखाचार्य थे। वे तमिल प्रदेश में गए। वहाँ के राजापों को जेन बनाया। जनता को जैन १-विशेष विवरण के लिए देते-ए. चक्रवती द्वारा सम्पादित Thirukkural की भूमिका। २-आचार्यभी दलसी अभिनन्दन ग्रन्थ ; चतुर्थ अध्याय, के. एस. धरणेन्द्रिमा एम.ए., बी. टी. के लेख के आधार पर।
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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