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________________ जैन-मक्तिके भेद ७५ कहा जाता है कि १२वें अंग दृष्टिवादमें १४ पूर्वोका सार संकलित हुआ था। पूर्व-साहित्य भगवान् महावीरसे भी पहलेका था, इसी कारण उसकी 'पूर्व' संज्ञा थी। दिगम्बर मान्यताके अनुसार, यह समूचा वाङ्मय, तीन केवली और पांच श्रुतकेवलियों तक अनवच्छिन्न रूपसे चलता रहा, किन्तु उत्तरोत्तर बुद्धिबल और धारणाशक्तिके अल्प होते जानेसे सब कुछ विस्मरण ही गया। इस भांति भगवान् महावीरके निर्वाण जानेके ६८३ वर्षके भीतर ही जैन-श्रुत छिन्न-भिन्न हो गया। जो कुछ बचा वह आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलिके षट्खंडागममें तथा आचार्य गुणधरके कषाय-प्राभूतमें निबद्ध हुआ है। _____ श्वेताम्बर-परम्पराके अनुसार दृष्टिवाद और १४ पूर्वोके विलुप्त हो जानेपर भी, ११ अंग सुरक्षित बच गये। उन्हें सुरक्षित रखनेके लिए पाटलिपुत्र, मथुरा और बल्लभीमें तीन प्रयत्न हुए थे। आगम-सूत्र साहित्य उन्हींका प्रतिनिधित्व १. दृष्टिवादके पाँच भेद-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और धूलिका हैं। इनमें पूर्वगत १४ प्रकारका है-उत्पादपूर्व, मामायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानवाद, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। देखिए, अकलंकदेव, तत्वार्थवात्तिक : प्रथम भाग, पं० महेन्द्र कुमार सम्पादित, हिन्दी-अनूदित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, जनवरी १९५३, १।२० का वार्तिक, पृष्ठ ७४ । २. गौतम, सुधर्मा और जम्बूस्वामी, ये तीन केवली कहे जाते हैं। ३. विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गौषर्धन, भद्रबाहु, ये पाँच श्रुतकेवली कहलाते हैं। भगवजिनसेनाचार्य, महापुराण : प्रथम माग, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००७, २०१४१ । ४. देखिए, सर्वार्थ सिद्धि : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २०१२, प्रस्तावना, पं० फूलचन्द्र जी लिखित, पृ० १३ । और भगवंत भूतबलि, महाबंध (महाधवलसिद्धान्त) : प्रथम भाग, श्रीसुमेरचय दिवाकर सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, मई १९४७, प्रस्तावना श्रीसुमेरचन्द्र लिखित, पृष्ठ १७.१९।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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