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________________ जैन-मक्तिकाम्यकी पृष्ठभूमि सिद्ध-भक्ति ___ आचार्य कुन्दकुन्द सिद्धके परम भक्त थे। एक भक्तको आराध्यकी शरणमें जानेसे जो प्रसन्नता उपलब्ध होती है, वह ही उन्हें सिद्धोंको शरणमें जानेसे मिली थी । उन्होंने कहीं तो सिद्धोंकी महिमाके गीत गाये हैं, कहीं उनको सिर झकाकर नमस्कार किया है, और कहीं वन्दना की है। उनका दृढ़ विश्वास है कि सिद्धोंकी भक्तिसे परम शुद्ध सम्यक् ज्ञान प्राप्त होता है। केवलज्ञान ही नहीं, अपितु भक्तको वह सुख भी मिलता है, जो सिद्धोंके अतिरिक्त अन्यको उपलब्ध नहीं है। आचार्य पूज्यपादने लिखा है कि सिद्धोंको वन्दना करनेवाला उनके अनन्त गुणोंको सहजमें ही पा लेता है। सिद्धोंका भक्त, भक्ति मात्रसे ही उस पदको भी प्राप्त करता है, जिस पर वे स्वयं प्रतिष्ठित हैं । आचार्य समन्तभद्रने उत्प्रेक्षाके द्वारा कहा है कि मानो भवसमुद्र में डूबे हुए भव्योंका उद्धार करनेके लिए ही सिद्ध लोकाग्रशिखरपर विराजे हैं। . १. देवेन्द्रदानवगणैरमिपूज्यमानान् सिद्धाँखिलोकमहितान् शरणं प्रपद्ये ॥ दशमक्ति: शोलापुर, १९२१ ई०, कुन्दकुन्द, सिद्धमक्ति : पृ० ६६ । २. जरमरणजम्मरहिया ते सिद्धा मम सुमत्तिजुत्तस्स । देंतु वरणाणलाई बुहयणपरिपत्थणं परमसुद्धं ॥ देखिए वही : पृ० ५८ । ३. भइमत्तिसंपउत्तो जो वंदइ लहु लहइ परमसुहं ॥ देखिए वही : पृ० ५८। ४. तान्सर्वाचौम्यनन्तामिजिगमिषुररं तस्वरूपं त्रिसन्ध्यम् ।। दशमत्यादिसंग्रह : श्री सिद्धसेन गोयलीय सम्पादित, सलाल, सावरकाँठ, गुजरात, वी. नि० सं० २४८१, आचार्य पूज्यपाद, सिद्धमक्ति : ९वाँ पध, पृ० १११। ५. अतिमक्किसंप्रयुक्तो यो वन्दते स लघु लमते परमसुखम् ॥ देखिए वही : अन्तिम पथ, पृ० ११२ । ६. सिद्धस्त्वमिह संस्थानं लोकायमगमः सताम् । प्रोव मिव सन्तानं शोकान्धी मग्नमंक्ष्यताम् ॥ आचार्य समन्तभद्र, स्तुतिविधा : पं० जुगलकिशोर सम्पादित : हिन्दी अनूदित, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, वि०सं० २००७, ८०वाँ पद्य, पृ. ९९।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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