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________________ जैन-मक्तिकाम्यकी पृष्ठभूमि प्रत्येक जीव सिद्ध बन सकता है, किन्तु अर्हत्पद प्राप्त करनेके लिए तीर्थकरत्व नामकर्मका उदय होना अनिवार्य है।' अर्हन्तको अवशिष्ट चार अधातिया कर्मोके नाश होने तक संसारमें रुकना होता है। उन्हें समवसरणको विभूति प्राप्त होती है। वे विश्वको अपना उपदेश देते है, जब कि सिद्ध सदा अपनेमें ही लीन रहते हैं। महन्त सकल परमात्मा कहलाते हैं। उनके शरीर होता है, वे दिखायी देते हैं। सिद्ध निराकार हैं, उनके कोई शरीर नहीं होता, उन्हें हम देख नहीं सकते। सिद्धोंने पूर्णता प्राप्त कर ली है, इसलिए वे वृद्ध और ह्रास दोनोंके ऊपर उठ चुके हैं, जब कि अर्हन्तको अभी मोक्षमें प्रविष्ट होने तकको वृद्धि करना शेष है । इसी कारण उन्हें 'वृद्ध' विशेषण दिया जाता है। सिद्ध अर्हन्तोंके लिए पूज्य हैं । शिव अर्थात् सिद्धका कीर्सन करने होके कारण उन्हें शिवकीर्तन कहा जाता है । सिद्धात्माओंकी नगरीके पन्थपर चलने के कारण उनको सिद्धपुरीपान्थ कहते हैं। इसी कारण श्री योगीन्दुने उनको 'परापरः' कहा है, अर्थात् सिद्ध 'परेभ्योऽहत्परिमेष्ठिभ्यः पर उत्कृष्टो मुक्तिगतः - - १. सोलह भावनाओंसे तीर्थकरत्वनामकर्मका उदय होता है। देखिए उमास्वाति, तस्वार्थसूत्र : पं० कैलाशचन्द्र सम्पादित, चौरासी, मधुरा, ६।२४, पृ० १५३। २. आर्हन्त्यलक्ष्म्या पुनरास्मतन्त्री देवासुरोदार-सभे रराज ॥ आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र : पं० जुगलकिशोर सम्पादित, वीर सेवामन्दिर, सरसावा, जुलाई १९५१, १६॥३, पृ० ५५ । ३. देखिए, पं० आशाधर, जिनसहस्रनाम : पं० हीरालाल जैन सम्पादित, मारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि. सं. २०१०, १०११३१, स्वोपज्ञवृत्ति, पृ० १३३ । ४. “शिवानां सिद्धानां वा कीर्तनं यस्य सः शिवकीर्तनः। दीक्षावसरे 'नमः सिद्धेभ्यः' इत्युच्चारणत्वात् ।” देखिए वही : ७५५, श्रुतसागरी टीका, पृ० २०४ । ५. सिद्धानां मुक्तात्मनां पुरी नगरी मुक्तिः ईषत्प्राग्मारसंज्ञं पत्तनं, तस्याः पान्थः पथिकः। देखिए वही : १० १३४, स्वोपज्ञवृत्ति, पृ० १३४-१३५ । .
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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