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________________ । जैन-मकिकाम्यकी पृष्ठभूमि रत्यो', श्री सोमदेवने 'लोकत्रयशिखरपुरीवासिनः" और मुनिश्री रामसिंहने 'सिद्धमहापुरिजाइयइ कहा है। सिद्ध जीव अपने संसारके अन्तिम शरीरसे किञ्चित् न्यून होकर वहां ठहरते हैं। सिद्ध जीवोंको जो सुख मिलता है, वह तो अनिर्वचनीय है । इसोको कुन्दकुन्दने अतिशय, अव्याबाध, अनन्त, अनुपम, इन्द्रियविषयातीत, अप्राप्त और अच्यवन कहा है । सिद्धोंका सुख शाश्वत होता है, क्षणिक नहीं । श्री योगीन्दुने उसको 'सासय-सुक्ख-सहाउ' लिखा है। सिद्धका तो स्वभाव ही परमानन्द रूप १. पुरिसायारो अप्पा सिद्धो माएह लोयसिहरस्थो । आचार्य नेमिचन्द्र, लघुद्रग्यसंग्रह : पं० भुवनेन्द्र सम्पादित-हिन्दी अनूदित, जिनवाणीप्रचारककार्यालय, कलकत्ता, वी०नि० सं० २४६२, विक्रम सं० १९९२, ५५वी गाथा, पृ० ३९ । कृत्वा सत्वोपकारं त्रिभुवनपतिभिर्दत्तयात्रोत्सवा ये ते सिद्धाः सन्तु लोकत्रयशिखरपुरीवासिनः सिद्धये वः ॥ K. K. Handiqui, Yasastilaka and Indian Culture, Jain Sam skriti Samrakshaka Sangha, Sholapur, 1949, p. 310. ३. एमइ अप्पा झाइयइ अविचलु चित्त धरेवि । सिद्धिमहापुरि जाइयह अट्ठ वि कम्म हणेवि ॥ मुनि रामसिंह, पाहुडदोहा : डॉ० हीरालाल जैन सम्पादित, अम्बादास चवरे दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला-३, कारंजा ( बरार ), १९३३ ई०, १७२वाँ दोहा, पृ० ५२। ४. अन्याकाराप्तिहेतुर्न च भवति परो येन तेनाल्पहीनः प्रागात्मोपात्तदेहप्रतिकृतिरुचिराकार एव अमर्तः ॥ दशभक्त्यदिसंग्रह : श्री सिद्धसेन गोयलीय सम्पादित, सलाल, साबरकाँठा, वीर निर्वाण सं० २४८१; पूज्यपाद, सिद्धमक्ति : ६वाँ श्लोक, पृ० १०७ । ५. अइसयमव्वाबाहं सोक्खमणंतं प्रणोवमं परमं । इंदियविसयातीदं अप्पत्तं अच्च च ते पत्ता ॥ दशक्ति : शोलापुर, १९२१ ई०, कुन्दकुन्द, सिबमति : पृ० ५६ । ६. अण्णु वि बन्धु वि तिहुयणहँ सासय-सुक्ख-सहाउ । तित्थु जि सयलु वि कालु जिय णिवसइ लब-सहा॥ योगीन्दु, परमात्मप्रकाश : श्री ए० एन० उपाध्ये सम्पादित, परमश्रुतप्रभावकमण्डल, बम्बई, १९३७, २०२०२, पृ० ३३९ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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