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________________ जैन-मक्तिकान्यकी पृष्ठभूमि भगवान् महावीरको मूर्तिको स्थापनाके अवसरपर खेला गया था।' कुमारपालने कुमार-विहारका निर्माण और प्रतिष्ठा, गुरु हेमचन्द्रसे वि० सं० १२१६ में जैन धर्मकी दीक्षा लेनेके उपरान्त करवायी थी। . आचार्य यतिवृषभने लिखा है कि भवनवासी देव जन्म-ग्रहणके पश्चात्, अन्तर्मुहर्तमें ही जिनालयों में जाते हैं और भगवानको पूजाके उपरान्त श्रेष्ठ अप्स. राओंसे युक्त होकर विविध नाटक करते हैं । राजस्थानीय अभिनेता और रास ' धर्मोत्सवोंपर नाटक खेलनेवालो नाट्य-कम्पनियां राजस्थानमें बहुत थीं। बारहवीं शताब्दीमें विरचित खरतरगच्छ पट्टावलीके आधारपर विदित है कि उस समय जैनोंमें रास-नाटकोंके अभिनयकी अधिकता थी। किन्तु जैन अभिनेताओंको मनोवृत्तियोंमें भक्तिके स्थानपर उच्छृखलता बढ़ने लगी थी। आचार्य जिन-वल्लभसूरि-जिनकी मृत्यु वि० सं० ११६७ में हुई–ने जैनमन्दिरोंमें लगुड-रास और ताल-रासको वजित घोषित किया था। इन रासोंके अभिनेताओंकी चेष्टाएँ अधिकतर विटोंकी-सी होतो, कभी-कभी प्रमादयश सिरमें चोट लग जाती, और पाठ भी दुष्ट होता था। सप्तक्षेत्रीराससे प्रकट है कि ये दोनों रास, विक्रमको चौदहवीं शताब्दी तक प्रचलित तो रहें किन्तु यत्किञ्चित् रूप में, शनैः-शनैः समाप्त हो गये। १. श्री लक्ष्मीशंकर व्यास, चौलुक्य कुमारपाल : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५४ ईसवी, पृष्ठ ३३ । २. देखिए वही : पृ. ४०।। ३. यतिवृषम, तिलोयपण्णत्ति : प्रथम भाग, डॉ. उपाध्ये और डॉ. जैन सम्पादित, शोलापुर, पृ. २४-२५ । ४. डॉ० दशरथ ओझा, हिन्दीनाटक, उद्भव और विकास : हिन्दी अनुसन्धान परिषद् , दिल्ली विश्वविद्यालयके तत्वावधानमें प्रकाशित, अध्याय ४, पृ० ७०। ५. अपभ्रंश काव्यत्रयी : लालचन्द्र गाँधी सम्पादित, गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज़, सं० ३७, बड़ौदा, १९२७ ईसवी, पृष्ठ १२ और ४७ । ६. इस रासका निर्माण सं० १३२७ में हुआ था। यह प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह : गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज़, सं० १३, १९२० ई०, में संगृ हीत है। ७. श्री अगरचन्द नाहटा, प्राचीन भाषा काव्योंकी विविध संज्ञाएँ : काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५८, अंक ४, सं० २०१० । -
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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