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________________ ne जैन-मक्तिकान्यकी पृष्ठभूमि - त्तियोंको दूर करना, उनके चरणोंको दबाना तथा और भी उनका जो उपग्रह है-वैयावृत्य कहा जाता है।" उन्होंने वैयावृत्त्यमें ही 'देवाधिदेवचरनेपरिचरणं'को गिना है। श्री शिवार्यकोटिने भी भगवतीआराधनामें लिखा है, "अरहंत भक्ति तथा सिद्धभक्ति अर आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु भक्ति अर निर्मल धर्ममें भक्ति ये सम्पूर्ण वैयावृत्त्य करी होय है। जात रत्नत्रयका धारकनिकी वैयावृत्त्य करी सो सर्वधर्मके नायकनिकी भक्ति करी।" भक्ति और श्रद्धा - भक्तिके पर्यायवाचियोंमें श्रद्धाका प्रधान स्थान है। श्री हेमचन्द्राचार्यके प्राकृत व्याकरणमें भक्तिको श्रद्धा ही कहा है। पाइअ-सह-महण्णवमें भी भक्तिके पर्यायवाचियोंमें सेवाके साथ श्रद्धाको भी गणना है। आचार्य समन्तभद्रने 'समीचीनधर्मशास्त्र में श्रद्धान और भक्तिका एक हो अभिप्राय माना है। जैन-शास्त्रोंमें श्रद्धाका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उससे मोक्ष तक मिल सकता १. व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुण-रागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ।। आचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्रः ६० जुगलकिशोर मुखतारसम्पादित, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली, अप्रैल १९५५, ५।२२, पृ० १४८ । २. देखिए वही : ५।२९, पृ० १५५ । ३. अहंतसिद्धमत्ती, गुरुभत्ती सव्वसाहुमत्सी य । प्रासेविदा समग्गा, विमला वरधम्मभत्ती य ।। श्री शिवार्यकोटि ( विक्रमकी सातवीं शताब्दी ) भगवती आराधना : मुनि श्री अनन्तकोर्ति दि० जैन ग्रन्थमाला ८, हीराबाग, बम्बई, वि.सं.१९८९ . २२वाँ पद्य , पृ० १५२। ४. प्राचार्य हेमचन्द्र, प्राकृत व्याकरण : डॉ. आर. पिशेल सम्पादित, बम्बई, संस्कृत सीरीज, १९००, २११५९ । ५. पाइअ-सह-महण्णव : पण्डित हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द शेठ सम्पादित, कलकत्ता प्रथम संस्करण, १९२८ ईस्वी, तीसरा भाग, पृ. ७९६ । ६. अमराप्सरसा परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रमकाः स्वर्गे ॥३७॥ लब्ध्वा शिवं च जिनमक्तिरुपैति भव्यः ॥४१॥ आचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र : पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली, अप्रैल १९५५, ११३७, ४१, पृ० ७२, ७५ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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