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________________ वैसे देवीकी मूत्तियोंमें चारसे सोलह तक हाथोंका अंकन हुआ है। प्रत्येक हायमें चक्रको धारण करनेके हो कारण देवी चक्रेश्वरी कहलाती है। चक्र एक पायुध विशेष है, जिसके घुमानेपर ज्वालाएँ फूटतो हैं और जिसको तेज धारसे अक्षौहिणी सेनाएं कटती चली जाती हैं। वह शक्तिमें इन्द्रके वचसे कम नहीं होता। इसी कारण देवीको वञ्च-इस्ता कहा जाता है। चक्रवर्तीके पास ऐसा एक ही चक्र होता है और देवीके पास दस । गरुड़वाहिनी देवीका वाहन गरुड़ है। गरुड़ पक्षियोंका राजा होता है। उसका वेग. अप्रतिद्वन्द्वी है। खगराजपर सवार हो देवी विश्वशासनका संचालन करती है। यदि उसका वाहन इतना तीव्रगामी न होता तो वह आदि तीर्थकरके धर्मका प्रचार समूचे विश्वमें कैसे कर पाती। सबसे पहले जब कि कर्मभूमिका उदय ही हो रहा था, घर-घरमें भगवान् 'जिन' के सन्देशको पहुँचानेके लिए देवीको गरुड़-जैसे वाहनको आवश्यकता थी। हम उसे गरुड़वाहिनी कहते हैं । देवी चक्रेश्वरीसे सम्बन्धित जैन-पुरातत्त्व देवी चक्रेश्वरीको एक मूत्ति मथुरा संग्रहालयमें नं. 'D.6' पर संगृहीत है। इसका निर्माण गुप्ता-युगमें हुआ था। यह गरुड़पर रखे एक गद्देपर आसीन है। उसके दस हाथ है और प्रत्येकमें एक-एक चक्र है। यद्यपि उसका सिर टूट गया है, किन्तु उसके चारों ओरका कमलोंसे बना दीप्त मण्डल तदवस्थ है। देवीके दोनों ओर दो औरतोंको मूत्तियाँ हैं, दाहिनी ओरकी स्त्री चमर और बायीं ओरकी पुष्पमालाको धारण किये हुए है । दोनों ही के चेहरे घिसे हुए हैं । देवीके सिरके ऊपर ध्यानमुद्रामें एक 'जिन' की मूत्ति है, जो बहुत अधिक टूटी हुई है। इसके दोनों ओर उड़ती हुई मूत्तियाँ हैं, जो पुष्पोंका गजरा लिये हए हैं। ऐसी ही एक मूत्ति देवगढ़की खुदाइयोंसे भी उपलब्ध हुई है। मूत्तिके सोलह भुजाएं हैं । वह गरुड़पर सवार है। बनावट कलापूर्ण एवं चित्ताकर्षक है। इसका रचनाकाल वि. सं. १२२६ माना जाता है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल भी उसे मध्य-कालका १. Dr. v. s. Agrawal, Mathura Museum catalogue, Part . III, p. 31. २. जैन सिद्धान्तमास्कर : माग २२, किरण १,१०१। २१
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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