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________________ . . . .... ........ . . .. जैन-भक्तिकाब्यकी पृष्ठभूमि जितनी सरस्वतीको मूर्तियां बनीं, उनमें जैन सरस्वती-प्रतिमाओंकी भव्यताकी तुलना नहीं की जा सकती। प्रथम चार देवियां--पद्मावती, अम्बिका, चक्रेश्वरो और ज्वालामालिनी जैन-मन्त्रको शक्तिशालिनो देवियां हैं। उनसे सम्बन्धित पुरातन साहित्य और पुरातत्व उपलब्ध है। उनपर अनेक मन्त्र-ग्रन्थों और कल्पोंका निर्माण हुआ । उनमें मल्लिषेणसूरिका ‘भैरवपद्मावती-कल्य' अत्यधिक प्रसिद्ध है। श्री मल्लिषेण ११वीं-१२वीं शतोके आचार्य थे। उनसे भी पूर्व मुनि सुकुमारसेन ( ८वीं शती ईसवी ) का 'पद्मावती-कल्प' उन्हींको कृति विद्यानुशासनमें निबद्ध है । इसी ग्रन्थमें 'ज्वालिनी-कल्प' भी है, जो देवो ज्वालामालिनीसे सम्बन्धित है । 'अम्बिका-कल्प' भी है। एक अम्बिका-कल्पको रचना श्री बप्पट्टिसूरिने को थी, जो उन्हींकी रचना जिनचतुर्विशतिकामें लिखा हुआ है। देवी अम्बिकाको माँकी ममताका प्रतीक माना गया है । पद्मावतीके बाद अम्बिकाका हो स्थान है। चक्रेश्वरी अपने दस हाथोंमें दस चक्र धारण करती थी, अतः उसे चक्रेश्वरी कहते थे। इन देवियोंकी शक्ति दुर्गा, काली और तारासे कम नहीं थी। वे भी दुष्टोंका विनाश और सन्तोंका संरक्षण करती थीं। मन्त्रोंको सतत साधना और भक्तिसे उनका वरदान भी मिलता था। वे कराल थीं और उदार भी। किन्तु अन्तर तो बना ही रहा। जैनदेवीने जैनत्व नहीं छोड़ा। ऐसा कभी नहीं हुआ कि वे बलिसे प्रसन्न हुई हों। उन्हें सिद्ध करने के लिए नीचकुलोत्पन्न कन्याओंके आसेवनकी बात भी नहीं चली। ऐसा भी नहीं हुआ कि भाद्रपदकी अमावसकी रातमें एक सौ सोलह कुंआरी,सुन्दरी कन्याओंको बलि देनेका किसी जैनने प्रत लिया हो। वे कराला थीं, किन्तु उनकी करालता व्यभिचार या मदिरा-मांससे तृप्त नहीं होती थी। सतगुणोंका प्रदर्शन हो उनको सन्तुष्ट बना सकता था। जैनोंमें 'मान्त्रिक सम्प्रदाय' जैसा कोई सम्प्रदाय नहीं था। कुछ आचार्य, सूरि, भट्टारक और साधु मन्त्रविद्याके भी पारंगत विद्वान् थे, किन्तु उन्होंने उसका उपयोग सांसारिक वैभवोंकी प्राप्तिमें नहीं किया। वह युग वाद-विवादोंका था। बौद्धिक अखाड़ेबाजियां चलती ही रहती थीं। जब कोई प्रतिद्वन्द्वी मन्त्रका उपयोग करता था, तो इधरसे भी करना पड़ता था। ऐसे ही एक वाद-विवादमें बोडोंने 'तारा' की सहायता लो, तो श्री हरिभद्रसूरिने अम्बिकाका वरदान प्राप्त किया और मद्राकलंकने पद्मावतीका। भर्तृहरिने मन्त्रके बलपर रसायन सिद्ध किया। उससे स्वर्ण बनता था। उन्होंने उसका कुछ अंश अपने भाई शुभचन्द्र के पास भी भेजा। थे जैन मुनि हो गये थे, वीतरागी थे, अतः लेनेसे इनकार कर दिया। साथ ही
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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