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________________ ALMAA NWwloaddosaas जैन-मक्तिके भेद १२७ पूर्वक शुद्ध मन-वचन-कायसे नमस्कार किया है। उनमें प्रथम छह, तीर्थंकरोंकी निर्वाणभूमियों और अवशिष्ट छह, अन्य वीतरागियोंके निर्वाणस्थलोंसे सम्बन्धित हैं। प्रथम छहमें वर्णित तीर्थभूमियोंके प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए उन्होंने कहा, “वास्तुतिरूप पुष्पोंसे गूंथी हुई मालाओंको लेकर, भगवान्की निर्वाण भूमियोंके चारों ओर, मनरूपी हाथोंसे चढ़ाते हुए, और आदरके साथ उन भूमियोंकी परिक्रमा करते हुए, हमको परम गति ( मोक्ष ) प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थना है। अन्योंके प्रति भी भक्ति-भाव दिखाते हुए उन्होंने लिखा है किजैसे गुड़का रस आटेको मिठास देता है, वैसे ही पुण्य-पुरुषोंके द्वारा सेवन किये गये स्थान साधारण प्राणियोंको पवित्रता प्रदान करते हैं। ___मुनि उदयकीतिने अपभ्रंश निर्वाणभक्तिमें लिखा है कि वृषभनाथको निर्वाणभूमि कैलास पहाड़को प्रणाम करनेसे धर्म-लाभ होता है। उन्होंने चंपापुरीकी 'पुणु चंपनयरि जिणुवासुपुज्ज, णिव्वाण-पत्तु छंडेवि रज्जु'के द्वारा और पावापुरकी 'पावापुर बंदउं वडमाण, जिणि महियलि पयडिउ विमल णाण' कहकर बंदना की है । बीस जिनेन्द्रोंको निर्वाणभूमि सम्मेदमहागिरिका 'हउ वंदउँ' कहकर सम्मान किया है। उन्होंने पोदनपुर और श्रीपुरका भी स्मरण किया है। श्री मदनकीत्ति (वि० सं० १२८५ ) की शासनचतुस्त्रिशिका ८ सिद्धक्षेत्र और १८ अतिशयक्षेत्रोंको स्तुति की गयी है । पावापुरकी वन्दना करते हुए उन्होंने लिखा है, "जिन्हें तिर्यंच भी भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं, जिनके १. यत्राहतां गणभृतां श्रुतपारगाणां निर्वाणभूमिरिह भारतवर्षजानाम् । तामद्य शुद्धमनसा क्रियया वचोमिः संस्तोतुमुद्यतमतिः परिणौमि भक्त्या ॥ आचार्य पूज्यपाद,संस्कृत निर्वाणभक्ति, दशभक्ति : श्लोक २१, पृ०२२७॥ २. माल्यानि वाक्स्तुतिमयैः कुसुमैः सुदृब्धान्यादाय मानसकरैरमित: किरन्तः पर्येम आदृतियुता भगवनिषद्याः संप्रार्थिता वयमिमे परमां गति ताः ॥ देखिए वही : श्लोक २७, पृ० २३२ । ........... . ३. इक्षोर्विकाररसपृक्तगुणेन लोके पिष्टोऽधिकं: मधुरतामुपयाति. यदत् ।। तद्वच्च पुण्यपुरुषेषितानि मिल्यं स्थानाति:तानि :जगतामिह पावनानि ॥ देखिए वही : ३१वाँ श्लोक, पृ० २३४.। . . . ४. कइलास-सिहरि सिरिरिसहनाहु, जो सिद्धरः पयाम धम्मलाहु। . मुनि उदयकोर्ति, अपभ्रंश निर्वाणमति : अप्रकाशित । ५. सम्मेद महागिरि सिद्ध जे वि, हडं वंदळ वीस जिणिंद ते वि।' देखिए वही।........।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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