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________________ १२४ जैन-मक्तिकाम्यकी पृष्ठभूमि एक नया रूप धारण कर लेती है। वहाँ 'बुझा देना' क्रिया, संसार और कर्मोंसे सम्बन्धित है। निर्वात आत्मा एक उस चिरन्तन सुखमें निमग्न हो जाती है, जिसे छोड़कर फिर उसे संसारमें नहीं आना होता। इसी कारण तीर्थंकरों और उत्कृष्ट कोटिके वीतरागियोंके निधनको 'निर्वाण होना' कहते हैं। जैन शास्त्रोंमें "निर्वाण' और 'मोक्ष' को पर्यायवाची माना गया है। समूचे कर्मोंसे छुटकारा होना 'मोक्ष' है , और सब कर्मोका बुझ जाना 'निर्वाण' है । परिभाषा जो निर्वाण प्राप्त कर चुके हैं, उनकी भक्ति करना निर्वाण-भक्ति है। इस भक्तिमें, पंचकल्याणक-स्तवनसे तीर्थंकरोंकी स्तुति और निर्वाण-स्थलोंके प्रति भक्ति-भाव शामिल है। निर्वाण-स्थल वे हैं, जहाँसे निर्वाण प्राप्त हुआ है। उनकी भक्ति संसार-सागरसे तारने में समर्थ है, अतः उन्हें तीर्थ भी कहते हैं। तीर्थंकरके पञ्चकल्याण जिन स्थानोंसे सम्बन्धित हैं, वे भी तीर्थ कहलाते हैं । तीर्थयात्राएं और तीर्थस्तुतियां दोनों ही निर्वाण-भक्तिकी अंग हैं। पंचकल्याणक-स्तुति आचार्य कुन्दकुन्दने प्राकृत निर्वाण भक्तिमें लिखा है, "इस मर्त्य लोकमें जितने भी पंच-कल्याणोंसे सम्बन्धित स्थान है, मैं उन सबको, मन-वचन-कायकी शुद्धिसे, सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ।" आचार्य पूज्यपादने तो संस्कृत निर्वाणभक्तिके प्रारम्भ में ही कहा, "मैं भक्तिपूर्वक, भव्य जीवोंको सन्तुष्ट करने वाले और अत्यन्त कष्टसे प्राप्त होनेवाले पंचकल्याणकोंके द्वारा, तीन लोकके १. निर्वाति स्म निर्वाणः, सुखीभूतः अनन्तसुखं प्राप्तः । पं० श्राशाधर, जिनसहस्रनाम : पृ० ९८ । २. 'कृरस्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः'। उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र : मथुरा, १०।२, पृ० २३१ । ३. 'तीर्यते संसारसागरो येन ततीर्थम् ।' पं० आशाधर, जिनसहस्रनाम : ४१४७ की स्वोपज्ञवृत्ति, पृ० ७८ । पञ्चकल्लाणठाणइ जाणवि संजादमच्चलोयम्मि । मणवयणकायसुद्धी सब्वे सिरसा णमंसामि ॥ आचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृतनिर्धाणमति : दशभक्ति : गाथा २३,पृष्ट २४३।। ४.
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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