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________________ १२ जैन मक्किकाकी पृष्ठभूमि · किया है। दोनोंके बीच एक मोटो विभाजक रेखा पड़ी है। यहाँ सिद्ध-भक्तिके रूपमें निष्कल ब्रह्म और तीर्थङ्कर-भक्ति में सकल ब्रह्मका केवल विवेचनके लिए पृथक निरूपण है, अन्यथा दोनों एक हैं। आगे चलकर हिन्दोके जैन भक्त कवियोंको यह बात विरासत में मिली । प्रत्येक कविने एक ओर आत्माके गीत गाये तो दूसरी ओर अर्हन्तके चरणोंमें श्रद्धा-दीप जलाये । उसने निर्गुणभक्ति और सगुणभक्ति जैसे दो खण्डोंकी कभी कल्पना भी नहीं की । जैनभक्तिको यह विशेषता उसकी अपनी है । सभी भक्तिपरक ग्रन्थोंमें- शाण्डिल्य ओर नारदके भक्ति सूत्रोंमें, हरिभक्तिरसामृतसिन्धु में ज्ञान, योग और समाधिको ज्ञानक्षेत्रके विषय मानकर भक्तिसे नितान्त पृथक् रखा गया है । किन्तु यहाँ श्रुत भक्ति में पांच प्रकारके ज्ञान, योगिभक्तिमें योग और समाधिभक्तिमें समाधिकी नाना प्रकारसे भक्ति की गयी है । अर्थात् ज्ञान और भक्ति में पृथक्त्व मानते हुए भी अपृथक्त्वका निर्वाह हुआ हैं । यह अनेकान्तात्मक परम्पराके अनुरूप ही है । पंचपरमेष्ठी भक्ति और आचार्यभक्ति गुरु भक्ति से सम्बन्धित हैं । केवल जैन ही नहीं अपितु समूची भारतीय परम्परा में गुरुका प्रतिष्ठित स्थान है । किन्तु जब दूसरी जगह गुरु और गोविन्दमें भेद बताया गया, तब यहाँ गोविन्दको ही गुरु कहकर, उसके गौरवको और अधिक बढ़ा दिया गया है। पंचपरमेष्ठी में 'अर्हन्त' और 'सिद्ध' भी शामिल हैं, जो 'जनगोविन्द' हो | 'आचार्य' शब्द तो आज भी प्रचलित है, और पहले भी रहा; किन्तु जैन श्रमण संघांके आचार्य तप और ज्ञानको मूर्ति होते थे । उनके तपः पूत व्यक्तित्व में एक ऐसा आकर्षण होता था, जो समीपस्थ वातावरणको श्रद्धासे अभिभूत रखता था । यह अभिभूति श्रद्धास्पद और श्रद्धालुमें अभेद स्थापित करती थी। जनभक्तोंका आराध्य केवल दर्शन और ज्ञानसे ही नहीं, अपितु चरित्रसे भी अलंकृत था । इसी में उसकी पूर्णता थी । चरित्रकी महिमा सब जगह गायी गयी है; किन्तु उसे भक्तिसे नितान्त पृथक् माना है । यहाँ चरित्रकी भी भक्ति की गयी है, चरित्र और भक्तिका ऐसा समन्वय अन्यत्र दुर्लभ है । यह वह भक्ति है, जिसका सम्बन्ध एक ओर बाह्य संसारसे है, तो दूसरी ओर आत्मासे । इसके कारण एक समूचे व्यक्तित्व में शालीनता समा जाती है । वह व्यवहार में लोकप्रिय बनता है और उसकी आत्मा में परमात्माका दिव्य तेज दमक उठता है । पुरातत्वमें तीर्थङ्करको मूर्तिके चारों ओर जो परिवेष उत्कीर्णित रहता हैं, वह इसी तेजका प्रतीक है ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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