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________________ १० . जैन-भक्तिकाम्मकी पृष्ठभूमि आवश्यक है। उसकी सूचोसे विदित है कि वहाँ अपभ्रंशके गोत और स्तवन पर्याप्त मात्रामें मौजूद हैं । नागौरका भण्डार भी इस दृष्टिसे उपयोगी है । अपभ्रंशसे हो भारतको हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओंका जन्म हुआ है । उनको प्रवृत्तियोंपर अपभ्रंशका प्रभाव है। हिन्दीका भक्ति-काव्य भी अछूता नहीं है। जयपुरस्थ पाटौडोके ग्रन्थ-भण्डारमें रल्हकी 'जिनदत्त-चौपई' अभी प्राप्त हुई है । वह अपभ्रंशके भक्ति-काव्यका उत्तम दृष्टान्त है। धर्मघोषसूरिका महावीरकलश, रइधूका 'सोऽहं गीत', 'दशलक्षण जयमाल', वल्हवका 'नेमोश्वर गीत', और गणिमहिमासागरको 'अरिहंत चौपई' इसी शृंखलाको कड़ियां हैं । हिन्दीको आध्यात्मिक-भक्तिके रूपकोंका प्रारम्भ हरदेवके मयणपराजय-चरिउ और कवि पाहलके मनकरहाराससे मानना चाहिए । सूरदासके वियोग-वर्णनपर विनयचन्द्रसूरिकी नेमिनाथ चतुष्पदीका प्रभाव है। स्वयम्भूके पउमचरिउकी सोताको शालीनता, सौन्दर्य और पति-निष्ठा तुलसीको रामायणमें प्रतिबिम्बित दिखाई देती है। पुष्पदन्तके महापुराणको कृष्णलीलाका विकसित रूप सूरसागर में निबद्ध है । धनपालको भविसयत्तकहाके पात्रोंका यदि नाम बदल दिया जाये, तो जायसीका पद्मावत बन जाये। केवल स्तुति-स्तोत्र या स्तव-स्तवन ही नहीं, पूजा, वन्दना, विनय, मंगल और महोत्सवोंके रूपमें भी जैन-भक्ति पनपती रही है । विक्रमकी पहली शताब्दी तकके ग्रन्थोंमें उनके उद्धरण निबद्ध हैं। मंगलोंमें णमो अरिहंताणं' भगवान महावीरसे भी पहलेका है। विद्यानुवाद नामके 'पूर्व'का प्रारम्भ उसीसे हुआ था। इसकी रचना तोर्थङ्कर पार्श्वनाथके समयमें, अर्थात् ईसासे ८५० वर्ष पूर्व हुई । जैन लोग ‘णमों अरिहंताणं' को अनादिनिधन मानते हैं। पुरातत्त्वमें उसका प्राचीनतम उत्खनन सम्राट् खारवेल (ईसासे १७० वर्ष पूर्व) के शिलालेखमें पाया जाता है। इसी भाँति महोत्सवोंमें तीर्थङ्करके जन्मोत्सवका प्रथम उल्लेख श्री विमलसूरि (वि० सं० ६० ) के 'पउमचरिय' ( प्राकृत ) में उपलब्ध होता है। आधुनिक खोजोंसे भगवान् पाश्वनाथ ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध किये जा चुके हैं। वह तीर्थङ्कर थे। बनारसके यशस्वी महाराज अश्वसेनके घर उनका जन्म हुआ था। उनका जन्मोत्सव मनाया गया, इसका प्रमाण तेरापुरको गुफाएं हैं, जिनमें पार्श्वनाथके जन्मोत्सवका चित्र अंकित है। वे गुफाएं विक्रम संवत्से आठ शताब्दी पूर्व बनी थीं। -: उपर्युक्त जैन भक्ति-काव्योंकी सबसे बड़ी विशेषता है उनकी शान्तिपरकता । कुत्सित परिस्थितियों और संगतियोंमें भी वे शान्तरससे दूर नहीं हटे। उन्होंने
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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