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________________ जैन-मतिकाम्यकी पृष्ठभूमि श्री वादिराजसूरिने 'पार्श्वनाथचारित्र'के प्रारम्भमें ही आचार्य गद्धपिच्छ, स्वामी समन्तभद्र, आचार्य अकलंक और भगवज्जिनसेन आदि अनेक आचार्योंकी वन्दना भक्तिके साथकी है। रत्नसूरिने अममचरित्र (वि. सं. १२५२ ) में, प्रद्युम्नसूरिने समरादित्य (वि. सं. १३२४ ) में और श्रीवादिदेवसूरिने स्याद्वादरत्नाकर ( १२-१३ शताब्दी विक्रम ) में सिद्धसेन दिवाकरकी तर्कप्रधान बुद्धिकी सराहना करते हुए, उनकी वन्दना की है। उनका पूर्ण विश्वास था कि दिवाकरके आशीर्वादसे हमारा अज्ञानान्धकार अवश्य दूर हो जायेगा, क्योंकि उनके उदय होनेपर वादिगणरूपी उलूक अस्तंगत हो जाते हैं। आचार्य-भक्तिका फल . आचार्योंकी भक्ति करनेसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है । कुन्दकुन्दाचार्यका कथन है, "मुझ अज्ञानीके द्वारा आपके गुणोंके समूहको जो स्तुति की गयी है, वह गुरुभक्तिसे युक्त मुझको बोधि-लाभ देवे ।" इन्हीं आचार्यने एक दूसरे स्थानपर कहा है कि, आचार्योंकी भक्ति करनेवाला, अष्ट-कर्मोका नाश करके, संसार. समुद्रसे पार हो जाता है। १. श्रीमद्वादिराजसूरि, पार्श्वनाथचरित्र ( वि. सं. १०८२ ), पं० श्रीलाल जैन, हिन्दी अनूदित, जयचन्द्र जैन प्रकाशित, कलकत्ता, वी. नि. सं. २४४८, पहला सर्ग, श्लोक १६-३०, पृ. ६-११। २. पं० जुगलकिशोर मुख्तार, जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश : श्री वीर शासन संघ कलकत्ता, जुलाई १९५६, पृष्ठ ५७२ । ३. तमतोमं स हन्तु श्री सिद्धसेनदिवाकरः। __ यस्योदये स्थितं भूकैलकैरिव वादिभिः ॥ प्रद्युम्नसूरि ( १४वीं शताब्दी विक्रम ), समरादित्य : पं० जुगलकिशोर मुख्तार, जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश : कलकत्ता, पृ० ५७२। तुम्हें गु-गणसंथुदि अजाणमाणेण जो मया वुत्तो। देउ मम बोहिलाहं गुरुभित्तजुदस्थो णिच्चं ॥ दशमति : शोलापुर, सन् १९२१, आचार्य कुन्दकन्द, प्राकृत आचार्य मति: १०वीं गाथा, पृ० २१३ । ५. गुरुमक्तिसंयमाभ्यां च तरन्ति संसारसागरं घोरम् । छिन्दन्ति अष्टकर्माणि जन्म-मरणे न प्राप्नुवन्ति ॥ देखिए वहीं : क्षेपक श्लोक, पृ० २१४ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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