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________________ जैन-मतिकान्यकी पृष्ठभूमि होना स्वीकार करते थे। दूसरी ओर आचार्य समन्तभद्रने सुश्रद्धा उसोको कहा, जो ज्ञानपूर्वक की गयी हो। उनके अनुसार ज्ञानके बलपर ही श्रद्धा सुश्रद्धा बन पाती है, अन्यथा वह अन्ध-श्रद्धा-भर रह जाती है। आचार्य समन्तभद्र ज्ञानमूला भक्तिके पुरस्कर्ता थे। जैन साधनामें भक्ति और ज्ञान दो विरोधी दूरस्थ तत्त्व नहीं है । उनका सामोप्य सिद्धान्तके मजबूत आधारपर टिका है। ___ आत्माके ज्ञानरूपका दिग्दर्शन करानेवाला कोई जैन आचार्य ऐसा नहीं, जिसने भगवान्के चरणों में स्तुति-स्तोत्रोंके पुष्प न बिखेरे हों। आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकायका निर्माण किया, तो लोगस्ससूत, प्राकृत भक्तियां और भावपाहुडको भी रचना की। मध्यकालके प्रसिद्ध मुनि रामसिंहके 'पाहुडदोहा' पर इसी 'भावपाहुड' का प्रभाव माना जाता है । पाहुड. दोहा अपभ्रंशको एक महत्त्वपूर्ण कृति है। उसमें वे सभी प्रवृत्तियां मौजूद थीं, जो आगे चलकर हिन्दीके निर्गुण-काव्यको विशेषता बनीं। उनमें रहस्यबाद प्रमुख है। निराकार परमात्माके प्रति भावविह्वल होनेकी बात, सबसे पहले सूफियोंने नहीं, अपितु भावपाहुडके रचयिताने कही। वहाँसे गुजरती हुई यह धारा पाहुङदोहाको प्राप्त हुई। विक्रमकी छठी शताब्दीमें आचार्य पूज्यपादने जिनेन्द्रके अनुरागको भक्ति कहा है। यह ही अनुराग आगे चलकर नारदके भक्तिसूत्रमें प्रतिष्ठित हुआ। यद्यपि राग मोहको कहते हैं और जैनोंका समूचा वाङ्मय मोहके निराकरणकी बात करता है; किन्तु वीतरागोमें किया गया राग उपर्युक्त मोहको कोटिमें नहीं भाता। मोह स्वार्थपूर्ण होता है और भक्तका राग निःस्वार्थ । वीतरागीसे राग करनेका अर्थ है, तद्रूप होनेकी प्रबल आकांक्षाका उदित होना। अर्थात् वीतरागीसे राग करनेवाला स्वयं वीतरागी बनना चाहता है। इस तादात्म्य-द्वारा प्रेमास्पदमें तन्मय होनेकी उसकी भावना है। सभी प्रेमी ऐसा करते रहे हैं। इसे ही आत्म-समर्पण कहते हैं । अहेतुक प्रेम भी यह ही है। इसीसे समरसी भाव उत्पन्न होता है। जैन आचार्योंने बोतरागी भगवान् जिनेन्द्र और आत्माके स्वरूपमें भेद नहीं माना है । दोनोंमे-से किसोसे प्रेम करना एक हो बात है। और अरूपो-अदृष्ट मात्मासे प्रेम करनेको रहस्यवाद कहते हैं । पूज्यपादने उसे भक्ति कहा है। उनकी दृष्टि में दोनों एक हैं, पर्यायवाची हैं । आवार्य पूज्यपाद एक ओर जैन सिद्धान्तके पारगामी विद्वान् थे, तो दूसरी ओर उन्हें एक भावुक भक्तका हृदय मिला था। उन्होंने जहां तत्त्वार्थसूत्रपर सर्वार्थसिद्धि-जैसे महाभाष्यकी रचना की, तो संस्कृत भाषामें जैन भक्तियोंपर अनेक स्तोत्रोंका भी निर्माण किया। उनसे मभ्ययुगीन
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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