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________________ ६४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * प्रथम . .. - - आधुनिक जैन-समाजमें प्रचलित है। यह तो उसका विकृत (बिगड़ा हुआ ) रूप है। यह एक सैद्धान्तिक नियम है कि जब कोई धर्म या ताकत गिरती हुई अवस्थामें होती है, उस समय उसका ढाँचा व अनुयायियोंका जीवन बड़ा शिथिल व अनियमित हो जाता है। ठीक यही अवस्था इस समय जैनधर्म व उसके अनुयायियोंकी होरही है। जैन-अहिंसाके इस विकृत रूरको छोड़ कर यदि हम उसके शुद्ध और असली रूपको देखें तो ऊपरके सब आक्षेपोंका निराकरण हो जाता है। इस स्थानपर हम उन चन्द आक्षेपोंके निराकरण करनेकी चेष्टा करते हैं, जो आधुनिक विद्वानोंके द्वारा जैन अहिंसापर लगाये जाते हैं। ___ पहिला आक्षेप यह किया जाता है कि जैनधर्मके प्रवर्तकों ने अहिंसाकी मर्यादाको इतनी सूक्ष्म कोटिपर पहुँचा दिया है कि जहाँपर जाकर वह करीब-करीब अव्यवहार्य हो गई है। जैनअहिंसाको जो कोई पूर्ण रूपसे पालन करना चाहे, उसको जीवन की तमाम क्रियाओंको बन्द कर देना पड़ेगा और निश्चेष्ट होकर देहको त्यागना पड़ेगा। ___ इसमें सन्देह नहीं कि जैन-अहिंसाकी मर्यादा बहुत ही विस्तृत है और उसका पालन करना सर्वसाधारणकलिये बहुत ही कठिन है। इसी कारण जैनधर्मके अन्तर्गत पूर्ण अहिंसाके अधिकारी केवल मुनि ही माने गये हैं, साधारण
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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