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________________ खण्ड ] * जनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * उन्हें भ्रमण करना नहीं था । इसलिये वे एक बटके वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर खड़े हो गये । ३१ कमठका जीव जो 'मेघमाली' नामका देव हो गया था, उस का श्रीपार्श्वनाथजीसे बड़ा वैर था । इस कारण उस रात्रिमें उसने श्रीपार्श्वनाथजीको अनेक उपसर्ग पहुँचाये और सिंह, हाथी, रीछ तथा चीते आदिकें डर बतलाये, किन्तु श्रीपार्श्वनाथ जी अपने ध्यान में आरूढ़ बने रहे । जब उस मेघमाली देवने देखा कि मेरे सारे प्रयत्न व्यर्थ होगये, तब उसने भयङ्कर वर्षाका उपद्रव करना प्रारम्भ किया। इसके परिणाम स्वरूप पार्श्वनाथ के चारों ओर पानी ही पानी घूमने लगा और देखते-देखते पानी कमर, नाभि यहां तक कि छाती तक पहुँच गया, किन्तु श्रीपार्श्वनाथ जी अपने व्यान में मग्न बने रहे । 'धरणेन्द्र' * नामक नागराजने जब यह दशा देखी, तब उसने प्रभु द्वारा अपने ऊपर किये गये उपकारों का बदला चुकानेकी इच्छासे स्वयं वहाँ आकर इस उपद्रवको बन्द किया । इस समय भी श्रीपार्श्वनाथ जी ध्यानारूढ़ खड़े थे । उनके लिये तो धरणेन्द्र तथा मेघमाली एक समान थे, अर्थात् वे शत्रु तथा मित्रको समान दृष्टि से देखते थे । इस घटना के थोड़े ही दिन बाद श्रीपार्श्वनाथजीको केवल ज्ञान अर्थात् सच्चा और पूर्ण ज्ञान उत्पन्न हुआ । केवलज्ञान हो * यह वही सर्पका जीव है, जिसे श्रीपार्श्वनाथने जलती हुई लकड़ी में से निकलवा कर प्राण-दान दिये थे ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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