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________________ ४०६ जेलमें मेरा जैनाभ्यास. तृतीय Sammadrama अथवा-जो मर्यादा मुर्वक विहार रूप भाचारका विधिवत् पालन करते हैं तथा दूसरोंको उसके पालन करानेका उपदेश देते हैं, उनको आचार्य कहते हैं। अथवा-जो योग्य अयोग्यका अलगअलग निश्चय करने में चतुर और यथार्थ उपदेश देनेमें प्रवीण होते हैं, उन्हें प्राचार्य कहते हैं। स-उक्त लक्षणों युक्त आचार्योंको नमस्कार करनेका उत्तर-सद् व्यवहारके उपदेश करनेके कारण जिनको परोपकारी होने की प्राप्ति हुई है, जो सर्वजन-मनोरंजक हैं, सब जनोंके मनोंको प्रसन्न करने वाले हैं, संसारके जीवोंमेंसे भव्य जीवोंको जिन-वाणीका उपदेश देकर उनको प्रतिबोध करते हैं और सम्य प्राप्ति कराते हैं, किसीको देश विरतकी प्राप्ति, किसीको सर्वा प्राप्ति कराते हैं तथा कुछ जीव उनके उपदेशका श्रवण कर भद्र-परिणामी हो जाते हैं। इस प्रकारके उपकारके कर्ता शान्त मुद्राके धारक उक्त आचार्य क्षण मात्रकेलिये भी कषायग्रस्त नहीं होते । अतः वे अवश्य नमस्कार करनेके योग्य हैं। ___ उक्त आचार्य नित्य प्रमाद रहित होकर अप्रमत्त धर्मका कथन करते हैं, राज-कथा, देश-कथा, स्त्री-कथा, भक्त-कथा, सम्यक्त्वमें शिथिलता तथा चरित्रमें शिथिलताको उत्पन्न करने वाली विकथाका वर्जन करते हैं, मल और पापसे दूर रहते हैं तथा देश और कालके अनुसार विभिन्न उपायोंसे शिष्य मोदिको
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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