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________________ ३६६ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय दत्तचित्त हो कर विनय करनेसे; ११-देवसी, रायसी, पाक्षिक, चौमासी और सम्वत्सरीका प्रतिक्रमण निरन्तर करनेसे; १२-- ब्रह्मचर्यादि व्रतोंको वगैर दूपण पालनेसे, १३-सदैव वैराग्य भाव रखनेसे; १४-बाह्य और आभ्यन्तर (गुप्त) तपश्चर्या करनेसे; १५-सुपात्रको दान देनेसे; १६-गुरु, रोगी, तपस्वी, वृद्ध और नवदीक्षित आदिकी वैय्यावृत्य अर्थात् सेवा-भक्ति करने से; १७-पूर्ण क्षमा-भाव रखनेसे; १८-नितान्त और नित्य नया ज्ञानाभ्यास करनेसे; १६-जिनेश्वरके वचनोंका आदर--मानपूर्वक पालन करनेसे और २० तन, मन और धनसे जैनधर्मकी उन्नति करनेसे। __ उन माता-पिताओंको धन्य है अथवा वे बड़े पुण्यके अधिकारी होते हैं जो तीर्थकर सरीखे पुत्रको जन्म देते हैं। जब तीर्थकर भगवान् गर्भ में आते हैं, तब उनकी मातेश्वरी चौदह स्वप्न देखती हैं। वे इस प्रकार हैं:-- १-ऐरावत हस्ति, २-श्वेत बैल, ३-शार्दूल सिंह, ४लक्ष्मी देवी, ५-पुष्पकी माला, ६-पूर्ण चन्द्रमा, ७-सूर्य, ८-इन्द्रध्वजा, -पूर्ण कलश, १०-पद्मसरोवर, ११-क्षीर समुद्र, १२-देवविमान, १३-रमोंका ढेर और १४-निधूम अग्निकी ज्वाला। मातेश्वरी इन दैदीप्यमान और अतीव हर्षोत्पादक स्वप्नोंका फल अपने पतिसे पूछती हैं। पति अति पवित्र और बड़ी ऊँची
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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