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________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार * ३६३ गुणस्थानमें शरीरकी कितनी अवगाहना थीं; अन्तरकी अपेक्षासे-- अमुक जीवके सिद्ध हो जानेके कितने समय बाद अमुक जीव सिद्ध हुए; संख्याकी अपेक्षासे-अमुक समयमें एक साथ जितने जीव सिद्ध हुए उनकी कितनी संख्या थी और अमुक समयमें एक साथ जितने जीव सिद्ध हुए उनकी कितनी संख्या थी; अल्पबहुत्वकी अपेक्षासे--अमुक-अमुक समयमें एक साथ सिद्ध हुए जीव थोड़े थे अथवा अधिक; इत्यादि । जिस शरीरसे आत्मा सिद्धपदको प्राप्त करती है, उस शरीरसे तीसरा भाग कम सिद्धस्थानमें आत्मप्रदेशकी अवगाहना रह जाती है। जैसे:-मान लो ५०० धनुष्की अवगाहनावाली कोई आत्मा सिद्ध हुई तो उसकी अवगाहना वहाँ ३३३ धनुप् और ३२ अङ्ग लकी रह जायगी । और जो आत्मा ७ हाथवाली अवगाहनासे सिद्ध हुई तो उसकी अवगाहान सिद्ध स्थानमें ४ हाथ और १६ अंगुलकी रह जायगी। ऐसा इसलिये होता है कि शरीरमें मुख, नासिका, कर्ण, उदर आदि स्थानोंमें कुछ पोल रहती है । उस पोलमें श्रात्म-प्रदेश नहीं रहते। वह पोल-आत्म-प्रदेश-शून्य स्थान शरीरमें नाम कर्मके विपाकका परिणाम है। इसलिये नाम कर्मके प्रभावमें " आत्म-प्रदेश शून्य स्थान सिद्धाकृतिमें नहीं रहता।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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